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शीतलाष्टमी लोकपर्व फूलदेई 15 मार्च को।

उत्तराखण्ड

शीतलाष्टमी लोकपर्व फूलदेई 15 मार्च को।

ज्योतिषाचार्य डा.मंजु जोशी …

15 मार्च 2023 दिन बुधवार को शीतलाष्टमी व उत्तराखंड का लोकपर्व फूलदेई का पर्व मनाया जाएगा।
शीतलाष्टमी
हिंदू पंचांग के अनुसार चैत्र माह के कृष्ण पक्ष में पढ़ने वाली
अष्टमी तिथि को शीतलाष्टमी पर्व के रूप में मनाया जाता है। इस दिन देवी शीतला माता की पूजा का विधान है। माता शीतला को स्वच्छता आरोग्य की देवी के रूप में पूजा जाता है। स्कंद पुराण के अनुसार देवी शीतला चेचक जैसे रोग की देवी हैं। सभी प्रकार के त्वचा संबंधी संक्रामक बीमारियों को दूर करने हेतु देवी शीतला की उपासना करना अति शुभ फल कारक रहता है। देवी शीतला की पूजा अर्चना करने से पूर्व स्वच्छता का विशेष ध्यान रखना अति आवश्यक होता है अन्यथा इसके नकारात्मक प्रभाव भी देखने को मिलते हैं। देवी शीतला को नैवेद्य रूप में ठंडा दूध, मट्ठा,दही एवं ठंडा भोजन अर्पित करने से संक्रामक बीमारियों में शीघ्र स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है
कुमाऊनी लोक पर्व फूलदेई
आइए जानते हैं फूलदेई का महत्व व कहानी।


देवभूमि उत्तराखंड की लोक संस्कृति धर्म और प्रकृति का अद्भुत संगम है जहाँ वर्ष के सभी महीनों में कोई न कोई त्यौहार मनाया जाता है उन्हीं त्यौहारों में से एक विशेष त्यौहार है “फूलदेई” जिसे उत्तराखंड के सम्पूर्ण पर्वतांचल में हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है। प्रकृति को आभार प्रकट करने वाला लोकपर्व है ‘फूलदेई’
चैत्र माह की संक्रांति को, जब ऊंची पहाड़ियों से बर्फ पिघल जाती है, सर्दियों के मुश्किल दिन बीत जाते हैं, उत्तराखंड के पहाड़ बुरांश के लाल फूलों की चादर ओढ़ने लगते हैं, तब पूरे इलाके की खुशहाली के लिए फूलदेई का पर्व मनाया जाता है। सर्दी और गर्मी के बीच का खूबसूरत मौसम, फ्यूंली, बुरांश और बासिंग के पीले, लाल, सफेद फूल और बच्चों के खिले हुए चेहरे… ‘फूलदेई’ के पर्व की विशेषता है। नए साल का, नई ऋतुओं का, नए फूलों के आने का संदेश लाने वाला ये पर्व उत्तराखंड के गांवों और कस्बों में मनाया जाता है। ये पर्व मुख्य रूप से किशोरी लड़कियों और छोटे बच्चों का पर्व है। वक्त के साथ तरीके बदले, लेकिन हम सभी को प्रयास करना चाहिए कि अपनी संस्कृति को जिंदा रखें व बढ़ावा दें व लोगों को जागरूक करें। फूलदेई के दिन लड़कियां और बच्चे सुबह-सुबह उठकर फ्यूंली, बुरांश, बासिंग और कचनार जैसे जंगली फूल इकट्ठा करते हैं। इन फूलों को थाली या टोकरी में सजाया जाता है। टोकरी में फूलों-पत्तों के साथ गुड़, चावल, पैसे और नारियल रखकर बच्चे अपने गांव और मुहल्ले की ओर निकल जाते हैं फूल और चावलों को गांव के घर की देहरी, यानी मुख्यद्वार पर डालकर लड़कियां उस घर की खुशहाली की कामना करती हैं। इस दौरान एक गाना भी गाया जाता है- फूलदेई, छम्मा देई….दैणी द्वार, भरे भकार…. यो देई पूजूं बारम्बार😊


आइए जानते हैं फूलदेई की कहानी
एक बार भगवान शिव अपनी शीतकालीन तपस्या में लीन हुए तो कई बर्ष बीत गए और ऋतुएं परिवर्तित होती रही लेकिन भगवान शिव जी की तंद्रा नहीं टूटी जिस कारण माँ पार्वती और नंदी आदि शिव गण कैलाश में नीरसता का अनुभव करने लगे, तब माता पार्वती जी ने भोलेनाथ जी की तंद्रा तोड़ने की एक अनोखी तरकीव निकाली। जैसे ही कैलाश में फ्योली के पीले फूल खिलने लगे माता पार्वती ने सभी शिव गणों को प्योली के फूलों से निर्मित पीताम्बरी जामा पहनाकर सबको छोटे-छोटे बच्चों का स्वरुप दिया और फिर सभी शिव गणों से कहा कि वे लोग देवताओं की पुष्पवाटिकाओं से ऐसे सुगंधित पुष्प चुन लायें जिनकी खुशबू पूरे कैलाश में फैल जाए।

माता पार्वती की आज्ञा का पालन करते हुए सबने वैसा ही किया और सबसे पहले पुष्प भगवान शिव के तंद्रालीन स्वरूप को अर्पित किये जिसे “फूलदेई” कहा गया। साथ में सभी शिव गण एक सुर में गाने लगे “फूलदेई क्षमा देई” ताकि महादेव जी तपस्या में बाधा डालने के लिए उन्हें क्षमा कर दें। बालस्वरूप शिवगणों के समूह स्वर की तीव्रता से भगवान शिव की तंद्रा टूट पड़ी परन्तु बच्चों को देखकर उन्हें क्रोध नहीं आया और वे भी प्रसन्न होकर फूलों की क्रीड़ा में शामिल हो गए और कैलाश में उल्लास का वातावरण छा गया। मान्यता है कि उस दिन मीन संक्रांति का दिन था तभी से उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल में “फूलदेई” को लोक-पर्व के रूप में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाने लगा, जिसे बच्चों का त्यौहार भी कहा जाता है।

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