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उत्तराखंड के वह लाल जिन से सरकारें थर्राती थी .. आंदोलन में अभी भी सुनाई देती हैं गिर्दा की कविताएं !

उत्तराखण्ड

उत्तराखंड के वह लाल जिन से सरकारें थर्राती थी .. आंदोलन में अभी भी सुनाई देती हैं गिर्दा की कविताएं !

जिन्होंने कई आंदोलनों को अपने शिखर तक पहुंचाया.. जिन्होंने अपनी कविताओं के दम पर सरकारों को हिलाया .. जिन्होंने अपनी लेखनी से दुनिया को जगाया . आओ आज उन्हें याद करते हैं.

नाम गिरीश चन्द्र तिवारी उर्फ गिर्दा

जी हां आज हम बात करने वाले हैं उत्तराखंड के वह लाल जिन को पूरा उत्तराखंड आज भी दिलों में समाए रखा है ..
पानी बिन जमीन प्यासी, खेतों में भूख उदासी,
यह उलटबासियां नहीं कबीरा, खालिस खेल सियासी।
पानी बिन जमीन प्यासी, खेतों में भूख उदासी….।
(ये है पानी की जमीन प्यासी)

लोहे का सर-पाँव काट कर, बीस बरस में हुये साठ के-२
अरे! मेरे ग्रामनिवासी कबीरा, झोपड़ पट्टी वासी।
पानी बिन……
नल की टोंटी जल को तरसे, हवाघरों में पानी बरसे-२
अरे! ये निर्माण किये अभियंता, मुआयना अधिशासी ।
पानी बिन…..
(ये जो राष्ट्र के अधिशासी हैं, देखिये आप)
ये निर्माण किये अभियंता, मुआयना अधिशासी ।।
पानी बिन….

इस कविता ने केवल उत्तराखंड में ही नहीं पूरे देश में एक क्रांति का आगाज़ कर दिया..
नाम – गिर्दा गिरीश चंद्र तिवारी
पिता- हंसा दत्त तिवारी
माता – जिवंती देवी
हंसा दत्त तिवारी और जीवंती देवी ने एक ऐसे पुत्र को जन्म दिया जिसकी कविताओं में कई बार सरकारों को खिलाफ लिखा .. 10 सितंबर 1945 को ज्योली गांव हवलबाग ब्लॉक जिला अल्मोड़ा उत्तराखंड में जन्मे गिर्दा आगे चलकर उत्तराखंड के लोगों के आइकन बन गए..
गिर्दा ने अपने गीतों कविताओं से उत्तराखंड में जन आंदोलनों को नई ताकत दी चिपको आन्दोलन, नशा नहीं रोजगार दो, उत्तराखंड आंदोलन और नदी बचाओ आंदोलन को नए तेवर दिए ..

बैणी फाँसी नी खाली ईजा, और रौ नी पड़ल भाई।

मेरी बाली उमर नि माजेलि , दीलि ऊना कढ़ाई।।

मेरी बाली उमर नि माजेलि, तलि ऊना कड़ाई।

रामरैफले लेफ्ट रेट कसी हुछो बतूलो।

हम लड़ते रयां बैणी , हम लड़ते रूलो।

हम लड़ते रया भुला, हम लड़ते रूलो।।

अर्जुनते कृष्ण कुछो, रण भूमि छो सारी दूनी तो।

रण बे का बचुलो , हम लड़ते रया बैणी हम लड़ते रूलो

हम लड़ते रया भुला, हम लड़ते रूलो।।

कसी होली विकास नीति, कसी होली ब्यवस्था।।

जड़ी कंजड़ी उखेलि भलीके , पूरी बहस करूलो।

हम लड़ते रयां बैणी , हम लड़ते रूलो।

जन गीतों के नायक गिरीश चंद्र तिवारी गिर्दा उत्तराखंड के एक बहुचर्चित पटकथा लेखक, गायक, कवि ,निर्देशक ,गीतकार, साहित्यकार थे , गिर्दा को ही जन गीतों के नायक के रूप में भी देखा गया ,राज्य के निर्माण आंदोलन में अपने गीतों से पहाड़ी जनमानस में ऊर्जा का संचार और अपनी बातों को प्रभावशाली ही प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने का अनोखा हुनर देखा,

कुछ इस तरह की लेखनी थी वह अपनी जवानी में घर से भाग गए बाद में वह उत्तर प्रदेश के पीलीभीत में जाकर रहने लगे बाद में वह वहां से लखनऊ चले गए वह कुछ साल बिजली विभाग में नौकरी करने के बाद 1967 में गीत और नाटक विभाग लखनऊ में स्थाई नौकरी के लिए चले गए, इसी नौकरी के कारण गिर्दा का आकाशवाणी लखनऊ में आना जाना शुरू हुआ उनकी मुलाकात शेर दा अनपढ़, केशव अनुराई, उर्मिला कुमार थपलियाल ,और घनश्याम सैलानी जैसे महान कवियों से हुई .. उनकी कुछ प्रमुख कविताएं हैं अंधा युग ,अंधेर नगरी चौपट राजा, नगाड़े ,खामोश, इंद्रधनुष जैसे अनेक नाटकों को उन्होंने निर्देशित भी किया…
आज हिमालय जगा रहा है तुम्हें,
की जागो जागो मेरे लाल।
मत करने दो अब नीलाम मुझे.
मत होने दो मेरा हलाल.
पत्थर बेचा मिट्टी बेचे बेचे जंगल हरे बांस के,
लीसा गडान के घावों से दी,
गई खाल मेरी उतार.
संगीत गीत सब भेज दिए .
मेरे इन सुमधुर कंठो का सुर बेच दिया.
सब बेच दिया ठंडा पानी ठंडी बयार.

चलन आज का नहीं पुराना है, छानिगें इतिहास तो यही मिलेगा जिनको भी अपने कांधे बिठाया हमने,
वही बन के काल हमारे यही सही इतिहास कहेगा..
यह कविताएं सरकारों को डराती थी . गिर्दा तब लोगों की आवाज बन चुके थे इसी बीच उत्तराखंड में जंगलों के अंधाधुंध कटान के खिलाफ 1974 में चिपको आंदोलन और जंगलात की लकड़ियों के नीलामी के विरोध में जन कवि के रूप में कूद पड़े ।

उसके बाद अनेक आंदोलन होते रहे , उत्तराखंड के साल 1970 में चले वन बचाओ आंदोलन 1984 के नशा नहीं रोजगार दो और 1994 में हुए उत्तराखंड आंदोलन में अपनी रचनाओं से जान डाल दी थी इतना ही नहीं उसके बाद भी हर आंदोलन में गिर्दा ने बढ़-चढ़कर शिरकत की..

इतना उदास मत हो, सर और घुटने अभी मत टेक..इस दुनिया में एक दिन ऐसा अवश्य आएगा, जब यह काली रात ड्लेगी पो फटेगी, चिड़िया चहकेगी..
जिस दिन चोर फलींगे, फूलिंगे नहीं ,
किसी का जोर नहीं चलेगा ,इस दुनिया में एक दिन ऐसा अवश्य आएगा जिस दिन कोई छोटा बड़ा नहीं होगा ,जिस दिन यह तेरा मेरा नहीं होगा. इस दुनिया में एक दिन ऐसा अवश्य आएगा, चाहे हम ना ना पाए, चाहे तुम ना ला पाओ, कोई ना कोई ऐसा दिन इस दुनिया में जरूर आएगा .

अगर गिर्दा आज जिंदा होते तो वह अपनी रचनाओं और गीतों से आज भी सत्ता को चुनौती दे रहे होते उनकी सिरोही कविताएं आज भी गढ़वाल और कुमाऊं को जोड़ती हैं

इन कविताओं से वह इस सिस्टम के खिलाफ खुल कर लिखते थे

22 अगस्त 2010 को इस जन कवि की बुलंद आवाज यूज हमेशा के लिए खामोश हो गई.. आप हमेशा जिंदा हो गिर्दा

अगर हम इनकी सभी कविताओं पर नजर डालेंगे तो घंटों निकल जाएंगे इसलिए आप इनको नमन कीजिए

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