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भैया दूज पर परंपराओं को संजोने वाले गांवों में च्यूड़े का है बड़ा महत्व।

धर्म-संस्कृति

भैया दूज पर परंपराओं को संजोने वाले गांवों में च्यूड़े का है बड़ा महत्व।

भारतभूमि अपनी एकता अखण्डता के लिए सदैव ही विश्वविख्यात रही है और सर्वधर्म का हमारा प्यारा राष्ट्र सभी त्यौहारों उत्सवों को सदैव ही भाईचारे आपसी मेलमिलाप के साथ मनाने के लिए विश्व में जाना जाता है।देवभूमि उत्तराखंड भी देवों की तपोभूमि के नाम से जानी जाती है वहीं इसकी पावन परंपराऐं हमें बहुत कुछ प्रेरणा प्रदान करती हैं। भारतभूमि व देवभूमि उत्तराखण्ड जहां होता है आस्था का अटूट संगम व जहां अपनी सुंदर रंग बिखेरती हैं परंपराऐं । संस्कृति, सभ्यता व ऐसी ही परंपराओं को संजोने का काम सदैव से ही करते आये हैं देवभूमि उत्तराखण्ड व पावन भारतभूमि के गाँव। आज आधुनिकता की चकाचौंध हो या रोजगार कर्मभूमि के रूप में भले ही पलायन निरन्तर जारी हो या पलायन से अनेक गाँव खाली हो चुके हों। किन्तु आज भी हर त्यौहार पर गांवों से पलायन कर चुके लोग इन परंपराओं के लिए अपने- अपने गांवों अपनी जन्मभूमि,मातृभूमि का रूख करते हैं और सभी मिलकर जीवंत रखते हैं महान परंपराऐं। ऐसे ही भाई बहन का एक त्योहार है


       
भैया दूज का त्यौहार जो बड़े धूमधाम से मनाया जाता है । भैया दूज पर बहनें अपने भाईयों को टीका अक्षत करने के बाद च्यूड़े सिर में रखकर उनके दीर्घायु और सुख समृद्धि की कामना करती हैं । भैया दूज पर परंपराओं को संजोने वाले गांवों में च्यूड़े का बड़ा महत्व है । अधिकांश गांवों में च्यूड़े तैयार करते समय सामूहिकता देखनी को मिलती है जो मातृशक्ति की एकता को प्रदर्शित करती है। च्यूडें तैयार करने के लिए पहले ही धान को भिगोने के लिए रखा जाता है फिर इन्हें कई बार ओखली में कूटने पर तैयार होते हैं च्यूड़े। इन भिगे हुऐ धानों को पहले एक बर्तन में भूना जाता है और भूने हुए धानों को थोड़ी-थोड़ी मात्रा में ओखल में डाला जाता है।

कूटने के बाद इनसे चिपके हुए और स्वादिष्ट चावल (च्यूड़े) निकलते हैं। इन च्यूड़ों से ही भैयादूज के दिन बहनें अपने भाइयों की सुख समृद्धि की कामना करती हैं। इन च्यूड़ो को तैयार करने में ओखल मूसल का उपयोग किया जाता इसके लिए सर्वप्रथम ओखल की साफ सफाई लिपाई आदि कार्य को अच्छी प्रकार से निबटा लिया जाता है। आजकल भले ही मशीनीकरण ने पाँव पसार लिये हों किन्तु गाँवों में आज भी महिलाओं द्वारा ओखल मूसल का उपयोग अन्न कूटने में किया जाता है। आजकल भले ही बाजारों में मशीन से तैयार च्यूड़े मिल जाते हैं, लेकिन वास्तव में ओखल में तैयार च्यूड़े पवित्र माने जाते हैं और ये खाने में भी अत्यधिक स्वादिष्ट होते हैं। ओखल में तैयार च्यूड़े लंबे समय तक घर पर रखे जाएं तो खराब नहीं होते हैं। देवभूमि उत्तराखंड के गाँवों से घरों से बाहर रहने वालों के लिए भी च्यूड़े भेजे जाते हैं जो देवभूमि मातृभूमि से सदा उन्हें जोड़े रखते हैं। ये बहुत पौष्टिक भी होते हैं। कुछ स्थानों पर चावल को भिगोकर तिल के साथ पकाकर च्यूड़े तैयार किये जाते हैं ये पके च्यूड़े कहलाते हैं।च्यूड़े दो प्रकार के होते हैं एक पके हुए और दूसरा ओखल में कूटकर तैयार किये हुए। देवभूमि के गाँवों क्षेत्रों में अलग अलग प्रकार के च्यूड़े तैयार किये जाते हैं। कुछ क्षेत्रों में पके हुए च्यूड़ो का प्रचलन है तो कुछ क्षेत्रों में ओखल से तैयार किये हुए च्यूड़ो का। अपने अपने गांवों क्षेत्रों में पूर्व में प्रचलित च्यूड़े बनाने की परंपरा प्रथा को अपनाकर उसी के अनुसार आज भी च्यूड़े तैयार किये जाते हैं। गांवों में भैया दूज के त्यौहार को च्यूड़ा पर्व के रूप में भी जाना जाता है । इस दिन नई दुल्हनें ,नव दंपंति अपने मायके में जाकर च्यूड़ा पर्व मनाते हैं । बने हुये च्यूड़ो को आसपास में बांटा जाता है जो समाज में एकता व अखण्डता को दर्शाती हैं । भारतभूमि के हर त्यौहार कुछ न कुछ प्रेरणा अवश्य देते हैं परंपराऐं कुछ न कुछ अवश्य सिखलाती हैं इन्हें आज संरक्षित किये हुये हैं देवभूमि व भारतभूमि  के गांव । परंपराऐं तभी संरक्षित होंगी जब संरक्षित होंगे गांव। भुवन बिष्ट की रिपोर्टः

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