साहित्य-काव्य
पीन सुंदरी: उत्तराखण्ड की नायिका कथा।
उमेश तिवारी ‘विश्वास’
मेरे एक दोस्त कहते थे महिलाएँ सब एक सी होती हैं। उनका संदर्भ शायद शेक्सपियर के औरत तेरा दूसरा नाम बेवफाई है, से जुड़ता होगा। मैं इतना सार्वभौम सामान्यीकरण करने का दुःसाहस नहीं कर सकता। कुछ नमूने अवश्य ऐसे हैं जिनमें पहाड़ की हमारी नायिकाओं के एक जैसी होने के सबूत मिलते हैं। इस पर प्रकाश डालने के लिए आवश्यक है कि पहले आपको सामान्य सी लगने वाली एक चीज़ की ओर आपका ध्यान आकर्षित करूँ। इससे मुझे अपनी बात स्पष्टता से समझाने में मदद मिलेगी। वह चीज़ या यंत्र है सेफ्टीपिन। अंग्रेज़ी के अक्षर आर की तरह की बनावट वाले इस नाचीज़ की एक भुजा स्यूड़ यानी सुई की तरह होती है। तीखी नोक और मध्य में दो गोल चक्कर खाती, बॉक्सिंग ग्लव सी आकृति में समा जाती है। इस तरह इसी खाँचे से उद्गमित हुई यह तीखी नोक वापस जाकर ख़ुद को छुपा सा लेती है। और इस प्रकार सेफ्टीपिन बनता है। पाठक क्षमा करेंगे कि मैंने सेफ्टीपिन की बनावट समझाने में इतने अधिक शब्दों का प्रयोग किया। तथापि मेरे पास इसका एक वैध कारण है। मैं चाहता हूँ आप सेफ्टीपिन की संरचना को अपने मस्तिष्क में भली-भांति बिठा लें; इसका तीखापन, तनाव, चमक और नियंत्रण भी। इससे आपको हमारी नायिका के सामान्य गुण-दोष और अंतरंग मनोवृत्ति को समझने में मदद मिलेगी। तो साब, ये जो सेफ्टीपिन है इसे अधिकांश नायिकाएँ पहाड़ में ‘पीन’ के नाम से जानती व पुकारती हैं। वह इसका प्रयोग बे रोक-टोक, स्चच्छन्दता पूर्वक करती हैं, जैसे सोनियाँ जी राजनीति में राहुल का। बटन सलामत हों तब भी ‘पीन’ दो बटनों के बीच एडजस्ट कर लिया जाता है, चाहे वह जोड़ने जैसा या कोई भी कार्य सम्पन्न नहीं कर रहा हो… जरूरत हो तो क्या कहने! मुझे लगता है यदि सेफ्टीपिन ईजाद न हुआ होता तो सुन्दरियाँ बटनों के प्रति इतनी लापरवाह कभी न होतीं। ऐन टैेम (टाइम) पर इनको आलपिन की जरूरत महसूस होते देखी गई है। वह कह सकती है, ”पीन कथाँ गईं बज्यूण?“ (कहाॅ खो गये निगोड़े पिन) या “म्यर पीनें हरै गईं….” (मेरे तो पिन ही खो गये) या ”एक पिन तो दो भाभी“, आदि-आदि। कुछ जागरूक नायिकाएँ पिनों की एक लड़ी हर स्वैटर में पहले से ही टाँगे रहती हैं, जिससे भविष्य में कोई आपात स्थिति उत्पन्न न हो। कई बटुवों में यह लड़ी विभिन्न साइज़ों में विद्यमान रहती है, जहाँ जैसी आवश्यकता हो फिट कर दो। जब एक पिन उचित स्थान पर लग चुकी हो और दूसरी, नायिका की दंत- पंक्ति के मध्य कसमसा रही हो और कोई कह दे, “हाई, बरियात ऐ लै ग्ये…. तू पिनें लगूण में रये!“ (बारात पहुँच भी गई, तू पिन ही लगाते रहना) इस स्थल पर पीन के साथ हमारी नायिका की छवि देखते ही बनती है। वह अलतलाट (नर्वेसनेस) के भाव दिखाती हैं, अचानक पिन को बाँये हाथ की उंगलियों के बीच दबोच, दांये हाथ से पिन आरोपित किए जाने के प्रस्तावित स्थल पर पिन के कार्य को उँगलियों द्वारा सम्पादित करते जवाब देती है, “ओ ईजा मेरी…(हाई मेरी माॅ)!” हमारी अधिकांश नायिकाओं हेतु पिन का प्रयोग अपरिहार्य है। उनके श्रृँगार के परफ़ेक्शन का लगभग 108वां हिस्सा पिनों पर निर्भर है। वह इस आदत को ससुराल तक ले जाते देखी गई हैं। विश्व के शेष हिस्सों में ऐसा होता होगा, कौन जाने ! हाँ, विदेशी पत्रिकाओं में बीच के पन्ने पर छपने वाले सुन्दरियों के जिन फोटुओं को ‘पिन-अप’ दृश्यावली की श्रेणी में रखा जाता हैं – उनसे उक्त सुन्दरियों का उत्तराखंड से पूर्व जन्म का कोई संबंध रहा होगा, ऐसा विचार अवश्य आता है। वैसे कौन जाने वो सुपर माॅडल दुनिया के उस हिस्से में सेफ्टीपिेनों का सम्यक प्रयोग कर रही हों।
आज तक आपने इन पिनों को नायिका के वस्त्रों पर लगे कदाचित ही देखा हो, दरअसल यही इनकी विशेषता है। ये दिखते नहीं पर अपना काम कर देते हैं। अपनी नायिकाओं के व्यक्तित्व में सेफ्टीपिनों की भूमिका के मद्देनजर मैं इनको ‘पीन सुन्दरी’ नाम से भी पुकारता आ रहा हूँ। हमारी नायिकाओं के मनोविज्ञान और सेफ्टीपिन की बनावट में काफी समानता लगती है। वह एक ओर काफी तीखी मिलती है, जैसे-जैसे आप आगे बढ़ते हैं, आपका सामना गोल चक्कर से होता हैं। जहाँ आप बहक अथवा भटक गए तो बरसों-बरस चक्कर काटते रह सकते हैं। यदि आप बुद्धिमत्ता से अथवा सौभाग्यवश चक्कर से निकल गए तो उस टोपी तक पहुंच जाएँगे जहाँ तीखी नोक ऐसे छुपी रहती है जैसे बीजेपी का असली एजेंडा। आगे की यात्रा आपकी मेहनत और ईमान पर निर्भर करती है। हो सकता है आप काफ़ी दूर तक जायें। आप रपटे नहीं कि वही दोहरा गोल चक्कर।
ध्यान रहे पहाड़ की नायिका सेफ्टीपिन जैसी जोड़ने की क्षमता रखती हैं। वो ‘हैंडिल विथ केयर‘ लेबल के साथ नहीं दिखतीं, इसका आपको स्वतः संज्ञान लेना होता है। मेरी समझ में पिनों कीे लड़ी के साथ लटके हरे रंगे के टैग पर अवश्य यह वैधानिक चेतावनी लिखी जानी चाहिए। अनाड़ियों के हाथों में मैने कई बार पीन (सेफ्टीपिन) चुभते देखी है। अनाड़ियों की क्या बात करें, ‘निरबुद्धि राजै कि काथै काथ’! हमारी नायिकाएं जब इन्हें प्रेम की कसौटी पर परखती हैं तो कई बार हाथ की पतंग की तरह ट्रीट करती हैं। पहले कन्ने बांधती हैं, फिर सहेली आदि से छुटकैंयाँ भी दिलवाती हैं। कभी ढील देते-देते अचानक सद्दी में टैंशन ले आती हैं जिससे पतंग फर्राटा मारती आसमान चूमने निकल पडती है। कभी उतार देती हैं और कभी पेंच लड़वा देती हैं- जिसका मांझा असली हो वो काट ले। वह अपनी डोर को लटाई में लपेट लेती हैं। अगर आपकी प्रेम पतंग कटने से बच जाए तो छोटे-मोटी वीयर एण्ड टीयर को चिप्पी लगाकर इलमारी के ऊपर रख देती हैं। जो कट जाय तो चार आने की नई ले आती हैं। ये अलग बात है कि सच्ची में हमारी बहुत कम नायिकाएं पतंग उड़ाना जानती हैं। उनके पास इतना टाइम ही नहीं होता।
डोर के नाम पर वह बिनाई की ऊन को अधिक पसंद करती हैं। सलाइयों पर उनकी उंगलियों की हरकत से तर्जनी पर सरकती ऊन की लयकारी पर किसी मीर की नजर पड़ती तो पहाड़ पर रंगे सुखन बरस पड़ता। हमारी यह नायिकाएं अपने फ़न के मयार से अनजान ही लगती हैं। पेश दर पेश अदभुत जालियाँ, बॉर्डर और मोड़ बुन डालें मगर ‘टाइट या लूज हाथ’ की कसौटी पर परखना कभी नहीं भूलती। अपनी उंगलियों की ओर इनका ध्यान शायद ही जाता हो। इन हाथों के बुने स्वैटर तीयल (विवाहों में एक परिवार द्वारा दूसरे को दी जाने वाली सौगात) में जाएं या भाईयों के तन पर फबे मिलें, ‘टैग लैस कम्फर्ट’ में ‘हेन्स’ को मात देते मिलेंगे। मेरा ख्याल हैं अपने तसव्वुर में वो नायक को केबल या मोड़ वाली बिनाई का स्वैटर डाले देखती होंगी। रमा, उमा से-“हाइ रे इश् श् श् श छांट में इतुक सफाई! (हाय रे बुनाई में इतनी सफाई)” उमा- “ततुक भलि लागणे त् तु धर ले, अघिल साल लगनौं तक सिराण मुणि च्यापि राखिये। एथां स्वैणां में आला, पैरे दिए….। (इतनी अच्छी लग रही है तो तू ही रख ले। अगले साल विवाह के लग्नों तक सिरहाने दाबे रखना- अगर बीच में कभी सपने में आये तो पहना देना)” रमा- “ना-ना रम्भा तू आपणि कारीगरी दिल्ली हाट में बेचि खाए, कोई ठीक जश पैरि लिगयोे पिछाड़ि बटी जै बेर गाव में जैमाल खिति दिए…( नहीं-नहीं रम्भा तू अपनी इस कारीगरी को दिल्ली हाट में जाकर बेच ले, कोई सुन्दर सा जवान इसे पहने तो पीछे से जाकर उसके गले में जयमाला डाल देना)” उमा- “डर ना केकड़ी, बनेनैं छ, नाग फांस जै के छ ! कै दिए मैं लै बुणी… मैं रणिवास में चुगली करण जै के ऊल…। (डर मत जिद्दी लड़की स्वैटर ही तो है कोई नागपाश नहीं, कह देना मैंने ही बुनी है…. मैं तुम्हारे रनिवास में चुगली करने थोड़ी आऊॅगी)” कुल मिलाकर उक्त रमा-उमा संवाद से प्राप्त शिक्षा यह है कि हमारी नायिकाओं के सपनों की सजावट-बुनावट में ऊन-सलाई का अधिक दखल लगता है, बजाए डोर-पतंग की ढील-लपेट के।
हमारी नायिका कुछ विशेष परिस्थितियों में हिन्दी या कुमाऊॅनी के स्थान पर एक अजब मौलिक बोली का प्रयोग करते देखी जा सकती हैं। वो सामने-सामने अपनी सहेली से आपकी शारीरिक बनावट या भाव-भंगिमा पर टिप्पणी कर देंगी, पर क्या मजाल कि आपकी समझ में कुछ आ जाय। हाँ, आपका ध्यान यदि पूरी तरह संवादों और उनकी अदायगी पर ही हो, नायिका के नख-शिख, रूप-सौन्दर्य पर नहीं, जो कि मुश्किल है और स्थानीयता से थोड़ी वाकफ़ियत हो तो शायद कुछ अनुमान लगा पायेंगे। कोई भाषाविज्ञानी भी इनकी कूट अभिव्यक्ति को तुरन्त डीकोड नहीं कर सकता। ‘घन्टर सेन्टे निंटिकन्टलते बन्टखत इन्टिजा नेन्टे जन्टरूर सन्ट मन्ट झन्टाया होन्टोगा – चेन्टेलिन्टियों केन्टे अन्टागे मुन्टुख कन्टम-कन्टम खोन्टोलना, धन्टवन्टल दन्टन्त पंन्टंक्ति केन्टे मन्टध्य सेन्टे दन्टडुवन्टापन्टन सन्टाफ दिंन्टिखाई देन्टेगा…………. (घर से निकलते वक्त माता जी ने अपने इस लाड़ले को समझाया ज़रूर होगा कि लड़कियों के आगे मुॅह कम-कम खोलना वरना धवल दन्त पंक्ति के मध्य से टेढ़े दाॅतों का दढ़वापन साफ दिखाई देगा………।) एक दूसरा नमूना देखें- ‘सन्टखी रीन्टी वन्टाटिका विन्टिच दोन्टो कुॅन्टुवन्टर कंन्टदन्टर्प अन्टाये हैंन्टें, बन्टड़े कोन्टो भन्टगा देन्टेते हैंन्टे, रन्टख लेन्टेते हैंन्टे छोन्टोटे कोन्टो।’ (सखी री वाटिका बिच दो कुॅवर कंदर्प आये हैं, बड़े को भगा देते हैं, रख लेते हैं छोटे को)
प्यारे पाठको, मैं अपनी इन नायिकाओं की छुपी अद्भुत प्रतिभाओं और छोटे-मोटे रहस्यों को सरसरी तौर पर उदघाटित तो कर सकता हॅू पर उनके सारे राज़ नहीं खोल सकता। शायद जानता भी नहीं हूँ। मुझे भोला समझकर, उन्होंने कई बार मन की अनंत परतें खोली हैं। बहुत कुछ सिखाया है मुझ जैसों को। किशोरावस्था की उत्कंठाओं को उन्होंने जिस अन्दाज़ में शान्त किया है, उसके लिए मैं ताउम्र ऋणी रहूँगा। उम्र में अपने से दुगुनी एक नायिका से जब मैंने पूछ लिया, “तुम्हारी शादी कब हो री ?” जवाब मिला, “जब तुम कहो!’’ यह उत्तर और तुरन्त बाद की हँसी, सेफ्टीपिन के गोल मोड़ में जैसे अटक कर रह गई। बरसों बाद जब अंग्रेजी के शब्द ‘इम्फैचुयेशन’ से टकराया तो गोल से निकल सका। ऐसे जाने कितने उदाहरण होंगे, जब सूक्त वाक्य की तरह, समझ में आती है बरसों अनुभव लेने के बाद अपनी नायिकाओं की बात।
इच्छा होती है सारी नायिकाऐं अपना एक सम्मेलन आयोजित कर उन ‘लाटों’ (नादानों) को भी बुला लें जो तब उनको समझ नहीं पाये। साक्षात्कार हो तो पता लगे उन्होंने आगे चलकर भी कुछ सीखा या..? दूसरी ओर तो अवश्य ही लाटों पर चर्चा व परिहास करती ‘पीन सुन्दरियों’ की सभा होगी, सेफ्टी पिनों की लड़ी ; ए चेन आँफ पिन-अप गर्ल्स आॅफ उत्तराखण्ड।