उत्तराखण्ड
सबसे खूबसूरत गांव में एक है। ‘बिन्ता’ कैड़ारों घाटी…उत्तराखण्ड.. .!
यूं तो कहा जाता है कि पुरे भारतवर्ष की आत्मा गांवों में बसती है। लेकिन जब बात उत्तराखंड की होती है तो अपना तो पूरा उत्तराखंड ही गांवों में बसता है। खूबसूरत पहाड़ों में बसे गांवों का समुच्चय है उत्तराखंड। गांवों के इस राज्य के सबसे खूबसूरत गावों में से एक है मेरा गांव बिंता।
अल्मोड़ा जिले में रानीखेत कौसानी और सोमेश्वर द्वाराहाट मोटर मार्गों के मध्य रानीखेत से २५ किलोमीटर दूर गगास नदी के किनारे दूनागिरि और भटकोट पर्वत श्रृखलाओं की पहाड़ियों के चरणों में फैली कैडारो घाटी और कैडारो घाटी के मध्य में बसा यह गांव प्राकृतिक सुंदरता और वन सम्पदा से संपन्न है। कैड़ा क्षत्रियों की बहुलता और उन्ही के द्वारा बसाए होने के कारण इस घाटी का नाम कैडारो घाटी पड़ा। चारों ओर पहाड़ों से घिरी कैडारो घाटी, तीन चार किलोमीटर में फैला बिंता का सेरा और भटकोट पर्वत से निकली गगास एवं दूनागिरि पर्वत से निकली बिंतरार नदियों का संगम मेरे गांव की सुंदरता में चार चाँद लगा देता है। भतौरा, खखोली, मैनारी, मटेला , पारकोट , देवलधार, नायल, नोलाकोट आदि गांव कैडारो घाटी के अन्य गांव हैं।
पोंराणिक शक्तिपीठ माँ दूनागिरि और ऐतिहासिक उदयपुर गोलू देवता के दो प्रसिद्द मंदिरों का प्रवेश द्वार है बिंता, इनके अतिरिक्त गांव में स्थित देवेश्वर महादेव और गगास नदी के तट पर स्थित मडकेश्वर महादेव के प्राचीन मंदिर धर्म और संस्कृति की धवजा थामे हुए प्रतीत होते हैं। नवरात्रो में लगने वाला उदयपुर मेला या कृष्णा जन्माष्टमी पर लगने वाला दूनागिरि मेला या फिर शिवरात्रि पर मडकेश्वर में लगने वाला शिवरात्रि मेला ग्रामीण जीवन में उत्सवों के रंग के अतिरिक्त प्राचीन परम्पराओं और संस्कृति का भी निरन्तर प्रवाह करते रहते हैं।
जन्म से १८ वर्ष की आयू तक मैं अपने गॉव बिंता में ही रहा, यही प्रारंभिक और माध्यमिक शिक्षा ग्रहण की और तत्पश्चात उच्च शिक्षा और रोजगार के लिए गॉव से बाहर निकला। एक अदद रोजगार के लिए संघर्ष और फिर धीरे धीरे गांव से संपर्क काम होता गया. या यूँ कहें कि फिर एक परिवार पलायन कर गया.
आज भी जब कभी बचपन याद आता है , तो मेरा यह सुन्दर गांव बहुत याद आता है। कभी अच्छी खासी जनसँख्या वाला यह गांव आज पलायन के अभिशाप से अछूता नहीं है और लगभग आधा खाली हो चूका है । घरों में लटके बेजुबां ताले पलायन के इस अंतहीन दर्द को बयां करते हैं।
मेरे गांव में एक इंटरमीडिएट कालेज है, आस पास के अन्य गावों में प्राथमिक विद्यालय और २-३ जुनियर हाईस्कूल भी हैं. हॉल ही में बिंता में एक आई टी आई भी खुल गया है। हमारे समय में यह एक हाईस्कूल था, इंटरमीडिएट की पढाई लिए छात्रों को गांव से आठ किलोमीटर दूर स्थित बग्वालीपोखर या १५ किलोमीटर दूर द्वाराहाट का रुख करना पढता था, उच्च शिक्षा के लिए भी द्वाराहाट, रानीखेत या अल्मोड़ा जाना पड़ता था। इसी क्रम में, इंटरमीडिएट पास करने के बाद सन १९९६ में मैने भी देश की राजधानी दिल्ली का रुख किया। और फिर हजारों पहाड़ियों की तरह मैं भी दिल्ली का ही होकर रह गया।
आज २० साल बाद भी जब में उस दौर के गांव को याद करता हुँ तो अपने गांव बिंता की रामलीला, उदयपुर के नवरात्रे, गांव की खड़ी होली, फुल्दै का त्यौहार, घुघुती के काले कौवे, और बाखलियों में होने वाले झोड़े बरबस ही याद आ जाते हैं। गांव की धूनी में लगने वाली जगर, भगवत पुराण, भजन कीर्तनों का आयोजन और हाँ बिंता का प्रसिद्ध क्रिकेट टूर्नामेंट सबकुछ अद्भुत ,अद्वितीय और अलौकिक था मेरे गांव में। घने जंगल, साल भर जलयुक्त नदियों की कलकल, शिवालय का शंखनाद, घरों की छतों पर गौरैय्या के घोसले …… प्रकृति की छाँव में बेहद साधारण सी दिनचर्या और सरल -सहज जीवन, .. फिर किसकी नजर लगी मेरे गांव को ?
लगातार पलायन से जहाँ गॉव खली हो रहे है, वहीँ ग्लोबल वार्मिंग ने पहाड़ों की जलवायुं पर बेहद प्रतिकूल प्रभाव डाला है। गांव में जनसँख्या लगातार कम होने के बावजूद पीने के पानी की समस्या आम हो गयी है। और पानी के आभाव में आबाद खेती बंजर हो रही है। उत्तराखंड सृजन से बहुत उम्मीदें थी पूरे पहाड़ को, लेकिन तुच्छ राजनीती और एक स्पस्ट विजन के आभाव में पलायन की रफ्तार राज्य निर्माण के बाद और भी तेजी से बढ़ी है।
शिक्षा की गुड़वत्ता और रोजगार के जटिल सवाल गांव से बाहर निकल चुके कदमों की वापसी का रास्ता रोक देते हैं। यद्यपि २० साल बाद भी साल में एक दो बार गांव अवश्य आता हूँ उसी सरल, सहज और साधारण जीवन की तलाश में। बचपन की स्मृतियों को ताजा कर देने वाले यही चन्द लम्हे महानगरीय जीवन से ऊब चुके मन और मस्तिस्क को तरोताजा कर देते हैं। शहर में रहने के बावजूद आज भी मेरा मन मेरे गांव में ही बसता है।
महांनगर के कोलाहल में रहने का अभ्यास नहीं है,
मेरे गांव न ये तुम कहना मेरा ह्रदय उदास नहीं है….!!