उत्तराखण्ड
पहाड़ो में अब रोपाई के समय बहुत कम देखने को मिलती है हुड़की बौल की ये परंपरा।
हेम कांडपाल–
चौखुटिया (अल्मोड़ा)। रसीले आमों की घाटी चौखुटिया में झमाझम बारिश के बीच हुड़के की थाप पर धान की रोपाई जोरों पर है। ईष्ट देवता की स्तुति व गीतों के साथ हुड़की बौल की ये परंपरा अब बहुत कम देखने को मिलती है। धुधलिया बिष्ट में हुई रोपाई की शुरूआत हुड़का बजाते हुड़किए द्वारा शुरू की गई भूमियां देवता की प्रार्थना से हुई। भूमियां देवता ओ देवा ओ भूमियां देवा सुफल हैजया (ओ भूमियां देवता हमारे देवता आप हमारी कृषि कार्य को सफल करा देना ) प्रस्तुत किया। महिलाएं सुर में सुर मिलाते हुए क्रम को आगे बढ़ाती रोपाई लगाती रही।
चौखुटिया घाटी में कुछ लोगों द्वारा जारी रखी गई हुड़की बौल की परंपरा बहुत कम देखने को मिलती है। अब न तो हुड़के की थाप पर सुर से सुर मिलाने वाली पुरानी पीढ़ी की महिलाएं नजर आती हैं न ही पंरपरा के जानकार हुड़किए। इस सबके बावजूद आज भी कुछ लोग हैं जिनकी बदौलत पुरानी परंपरांए जिंदा हैं।
हुड़किया सुरेश बोरा व उनके साथी मदन सिंह कन्याल भूमियां देवता की स्तुति के बाद राजा हिरोहित के गीत ओ हिता हसहिता, हिता ओ हिता, समरो हिता, हितु गुजरू कोटा मजारे गाते हैं। फिर कत्यूरों की गाथा गाई जाती है रजा ओ रजा, बिरमा रजारे, रजा बांके लखनपुर मजा के अलावा कहेड़ी ओ भगा कहैड़ी भगा, यश त्यर भागा रे जैसे गीत गाते हैं। रोपाई लगाती महिलाएं उनके गीतों को दोहराते हुए सुर में सुर मिलाती हैं।
रोपाई के सीजन में महिलाओं के ऊपर कृषि कार्य का बड़ा बोझ होता है। घर के रोजमर्रा के कार्य के साथ ही दिनभर खेतों में पानी के बीच रहकर बड़ी थकान लगती है। पुराने लोग बताते हैं कि हुड़के की थाप पर गाते बजाते कृषि कार्य करने से थकान कम हो जाती है। इसी के चलते पुराने लोग प्रत्येक खेत में हुड़की बौल के माध्यम से रोपाई करवाते थे।