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उत्तराखण्ड के 25 साल” v/s “म्यर पहाड.. ढकी द्वार”

धर्म-संस्कृति

उत्तराखण्ड के 25 साल” v/s “म्यर पहाड.. ढकी द्वार”


(पलायन पर एक मार्मिक गीत)


उत्तराखण्ड राज्य की स्थापना होने पर ,पहाड़ में खुशी की लहर दौड़ रही थी, जनकवि स्वर्गीय हीरा सिंह राणा जी भी नहीं रूक पाये ,खुशी के आवेश में गीत लिख दिया ” उत्तराखण्ड राज हैगो गीत गहाओ, फुको हो रणसिंघ, नगार ढोल बजाओ” जनकवि श्री आनन्द बल्लभ पपनैं जी ने लिखा ” उत्तराखण्ड राज छा, के बातैकी कमती रौली “,
सोचा था ,अब पहाड़ का विकास होगा , पहाड़ से पलायन रुकेगा मगर हुआ इससे उलट , पहाड़ से पलायन बढ़ता गया, आज पलायन अपनी चरम सीमा पर है , अधिकांश गांव लगभग वीरान हो चुके हैं ,कई घर खण्डहर हो चुके हैं , अब उक्त गीतों को सुनने के बाद , हर एक पहाड़ी निश्चित ही ,अपने को ठगा महसूस करता होगा ।
उत्तराखण्ड राज्य स्थापना दिवस शहरों में जोर-शोर से मनाया जाता है,और पहाड़ सुन्न है। आश्चर्य है , ये कैसी प्रसन्नता??
म्यर पहाड़ -ढकी द्वार
मित्रो, जैसा कि,गीत के शीर्षक से ही विदित होता है, कि यह गीत पलायन से सम्बंधित है। दशकों से पहाड़ से लोगों का शहरों की तरफ लगातार पलायन हो रहा है।अब गांवों में गिनती के कुछ ही लोग बचे हैं,और कुछ गांव तो लगभग खाली हो चुके हैं, सभी घरों में ताले लगे हैं, यहां तक ,कुछ घर खण्डहर हो चुके हैं, जिनमें जंगली जानवरों ने छिपने का स्थान बना लिया है।
हमारे ईष्टदेव, देवी-देवताओं के मन्दिर (थान ) , जिनमें हम लोग हर शुभ अवसर पर धूप-बत्ती व पूजा -पाठ करते थे, जीर्ण -क्षीर्ण अवस्था में हैं, कुछ का तो पता भी नहीं लग पाता,कि कहाॅं हैं।
खेत खलिहान बंजर पड़े हैं, कुछ लोग जो किसी तरह रह भी रहे हैं, जंगली जानवरों के आतंक से भयभीत रहते हैं। मेहनत कर कुछ खेती -बाड़ी करते हैं, लेकिन जंगली जानवर एक पल में सारा नष्ट कर जाते हैं।
पलायन के कारण हमारे लोकपर्व एवं लोक-संस्कृति विलुप्त होती जा रही है। इन सब परिस्थितियों का मुख्य कारण है, रोजगार का अभाव , जिस कारण ,पलायन पहाड़ के लोगों के लिये मजबूरी बन चुका है ।
उक्त गीत में इन्हीं सब समस्याओं को दर्शाने का प्रयास किया है। गीत के अंत में, सरकार से पहाड़ में रोजगार के अवसर प्रदान करने के लिये निवेदन किया है।
पहाड़ में रोजगार होगा तो ,आगे पलायन रूकेगा और जो लोग पहाड़ से पलायन कर शहरों में किसी तरह जीवन यापन कर रहे हैं, वे लोग भी अपने गांव की तरफ लौटेंगे, क्योंकि अधिकांश लोगों का मजबूरी में शारीरिक पलायन हुआ है, मानसिक नहीं। मन हमेशा पहाड़ से ही जुड़ा रहता है, ऐसी मेरी धारणा है।
फलत: पहाड़ में फिर से रौनक व खुशहाली आयेगी, बशर्ते सरकार रोजगार के अवसर उपलब्ध कराये।
गीत की रचना श्री आनन्द बल्लभ पपनैं जी ( अवकाश प्राप्त अध्यापक) ने की है। श्री पपनैं जी ने विभिन्न सामाजिक विषयों पर, कविता, गीत एवं नाटकों की रचना की है, जिनमें उनकी कुछ प्रमुख रचनायें , बिखिलि शराब, चकबकान मन , यक्कै छौं , कोरि कपाई , आपण हाल- आपणि बात , धरी रैग्ये गाणि – माणि , बिपदु सुदामा , पेड़ की पुकार, रामलिल ( कुमाऊॅंनी बोली में रामलीला) आदि हैं। सत्तर के दशक से श्री पपनैं जी की रचनाओं का प्रसारण आकाशवाणी लखनऊ और नजीबाबाद से कई बार हुआ है।
गीत में लोकगायक नवीन पाठक व दिलीप कुमार ने स्वर दिया है।
गीत उत्तरांचल सिरीज़ यूट्यूब चैनल ( Uttaranchal Series Yutube Channel ) से प्रसारित हो गया है। गीत मार्मिक एवं कर्णप्रिय है ।

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