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यादों के झरोखे से – अगर यूकेडी 1996 में इस गलती को नहीं करती तो आज भाजपा से भी ज्यादा मजबूत होती ।।

उत्तराखण्ड

यादों के झरोखे से – अगर यूकेडी 1996 में इस गलती को नहीं करती तो आज भाजपा से भी ज्यादा मजबूत होती ।।

2024 के चुनाव में यूकेडी का कोई वर्चस्व नहीं है लेकिन एक समय में यूकेडी पहाड़ों के लोगों के दिलों में बसती थी उत्तराखंड में साल 1996 का लोकसभा चुनाव आज तक के सबसे ज्यादा संघर्ष और तनाव के दौर से गुजरा है । अलग राज्य आंदोलन का नेतृत्व कर रहे क्षेत्रीय राजनीतिक दल यूकेडी ने राज्य नहीं तो चुनाव नहीं का नारा इसी बार दिया था और चुनाव का बहिष्कार भी तो कर दिया था। यूकेडी के सैकड़ों कार्यकर्ता इस इरादे के साथ सड़कों पर उतर आए कि चुनाव के लिए न तो खुद नामांकन करेंगे न दूसरे दलों को नामांकन करने देंगे। लेकिन यूकेडी के लिए यह निर्णय सही नहीं था । भाजपा, कांग्रेस, और तिवारी कांग्रेस के सदस्यों ने बहिष्कार का लाभ उठाया और नामांकन कक्ष में पिछले दरवाजे से अपना नामांकन दाखिल किया और चुनाव भी लड़ा। इस अवसर को चूक जाने के बाद यूकेडी को गहरा अफसोस हुआ। लेकिन केवल अफसोस से चुनाव के नतीजे नहीं बदलते हैं ।
उत्तराखंड क्रांति दल के दो प्रमुख नेता इंद्रमणि बडोनी और काशी सिंह ऐरी यदि 1996 में चुनाव लड़ने का विकल्प चुनते तो संसद सदस्य बन सकते थे। इसके बाद 1998 के लोस चुनाव में बडोनी को टिहरी सीट से 35.08% अल्मोड़ा सीट से ऐरी को 39.39% वोट मिले थे। उत्तराखंड में लोगों की प्रचलित भावनाओं के अनुरूप पार्टियों का पक्ष लेने का इतिहास रहा है। 1996 में उत्तराखंड क्रांति दल के लिए समर्थन की उल्लेखनीय लहर थी। चुनाव के दौरान उत्तराखंड क्रांति दल का नारा “राज्य नहीं तो चुनाव नहीं” था जबकि
उनके इरादे नेक थे और उत्तराखंड के लिए ही थे

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