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पर्वों में एकरूपता और सनातन रक्षा हेतु आग्रह।

धर्म-संस्कृति

पर्वों में एकरूपता और सनातन रक्षा हेतु आग्रह।

आज आपके समक्ष अत्यंत ही संवेदनशील विषय लेकर प्रस्तुत हुई हूं जो की सनातन धर्म और संस्कृति के लिए अति विचारणीय विषय है।
आज का पूरा आलेख पंचांग निर्माताओं तथा आम जनमानस के लिए है।
वर्ष 2025 में दीपावली पर्व को लेकर उत्तराखंड में अत्यंत ही नाटकीय घटनाक्रम आप सभी ने देखा। समाज दो पंक्ति में विभाजित हो गया, और दो-दो दिन पर्व मनाने के हेतु आम जनता को बाध्य किया गया। जिससे कि सनातन के प्रति लोगों में उदासीनता भी देखी गई, जो कि स्वाभाविक विषय है। त्यौहार का अर्थ ही है अपनी सांस्कृतिक परंपराओं को उत्साहित, और एकजुट होकर मनाना।
(दिवाली से पूर्व सनातन संस्कृति में ज्ञानी जनों की ऐसी आंधी आई, मानो समाज में दो दिन दिवाली मनाई जाए इससे बड़ी समस्या कुछ है ही नहीं, दिवाली के उपरांत सभी भूमिगत हो गए जैसे मानो समाज में कोई समस्या अब बची ही नहीं, आज हिन्दू भ्रमित हो रहा, पूरे भारत वर्ष में गुरुकुलों की संख्या कम होती जा रही है उस पर क्यों नहीं विचार किया जाता, हिंदुओं को छोटे–छोटे कार्यों से जीविकोपार्जन करने के लिए क्यों नहीं धर्म गुरु प्रेरित करते, सनातन के विस्तारीकरण पर बात क्यों नहीं होती, सनातन वैदिक धर्म की संस्कृति पर बात क्यों नहीं होती, युवाओं का पतन हो रहा है उनको सही मार्ग प्रशस्ति पर बात कीजिए, )

परंतु मेरा प्रश्न और आम जनता का भी शायद प्रश्न यही होगा, जिन पर्वों को मनाने से पूर्व ही इतनी विवादित और विरोधाभासित स्थिति उत्पन्न हो, उसमें उत्साह होता है क्या??
आखिर कौन उत्तरदाई है इन पर्वों के विभाजन हेतु?
कुछ तथाकथित जातकों ने अपने स्वार्थ को सिद्ध करने हेतु सनातन धर्म, और पर्वों के विभाजन से होने वाले दूरगामी परिणामों के बारे में विचार किए बिना,समाज में श्रेष्ठ कहे जाने वाले सीधे-सरल पुरोहित वर्ग को भी अपने षड्यंत्र में सम्मिलित किया। सनातन धर्म में पर्वों से संबंधित लिए गए धार्मिक पुस्तकों के निर्णय को भी अपने स्वार्थ अनुसार तोड़ मरोड़कर प्रस्तुत किया। नीचता की पराकाष्ठा तो तब हुई जब दीपावली जैसे पर्व को उत्तराखंड में यह बोलकर संबोधित किया गया कि पर्वतीय दिवाली और मैदानी दिवाली। दीपावली जैसे सनातनीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर मनाएं जाने वाले पर्व को पर्वतीय या मैदानी कहना कितना उचित है??
जहां संचार माध्यमों का प्रयोग कर हम सनातनीय संस्कृति को विश्व पटल पर स्थापित कर सकते थे/हैं, परंतु आज इसके उलट ही सामाजिक माध्यम की आड़ में कुछ लोगों ने अपने स्वार्थ सिद्धि हेतु सनातन संस्कृति को हास्यास्पद स्थिति में ला खड़ा किया है।
कौन है इसके लिए उत्तरदाई?
इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे विचार कीजिए?
वर्ष 2025 में 20 अक्टूबर को संपूर्ण भारतवर्ष में दीपावली पर्व मनाया गया जो की शास्त्र सम्मत था।
परंतु आम जनता को यह बोलकर भ्रमित किया गया कि उत्तराखंड में उदया तिथि मान्य होती है। जबकि सनातन धर्म में प्रत्येक पर्व मनाने के लिए अलग-अलग नियम सुनिश्चित किए गए हैं।
जिन पंचांग कारों ने आम जनता तथा पुरोहित वर्ग को यह बोलकर भ्रमित किया कि उत्तराखंड में पर्व मनाने हेतु उदया तिथि मान्य होती है, उन सभी पंचांग कारों से मेरा प्रश्न है और आम जनता से निवेदन उन सभी से एक प्रश्न अवश्य कीजिए उन सभी पंचांगकारों ने वर्ष 2026 में 8 नवंबर 2026 की दीपावली क्यों और कैसे दर्शायी? जबकि उदया तिथि 9 नवंबर 2026 को है??
फिर पंचांगकारों ने 9 नवंबर 2026 को अपने पंचांग में दीपावली क्यों नहीं दर्शायी ?

उत्तराखंड में चारों धामों में 20 अक्टूबर 2025 को दीपावली घोषित की गई उस पर भी आम जनता को यह बोलकर भ्रमित किया गया कि चारों धामों में पहले दिन ही पर्व मनाया जाता है जो कि मिथ्या थी जनता को भ्रमित करने हेतु।
इसलिए आम जनता को अपनी संस्कृति के लिए जागरूक होना होगा और पुरोहित वर्ग को भी सनातन संस्कृति की रक्षा हेतु समझना और अध्ययन करना होगा जिससे कि सामाजिक स्तर पर सनातन धर्म की एकता/ संस्कृति/ विज्ञान को बल मिले तथा समाज में पर्वों में एकरूपता व उत्साह जीवित रहे।
(पर्वतीय क्षेत्र में जो भी पारंपरिक पर्व जैसे उत्तरायणी, फूलदेई, घी संक्रांति, विरूड पंचमी, हरेला, नंदादेवी मेला,सातू आठू इत्यादि मनाए जाते है उसके लिए जो नियम सुनिश्चित है उस पर कोई प्रश्न नहीं करेगा। अपनी पर्वतीय परंपराओं के अनुसार पर्व मनाया जा सकते है) परंतु राष्ट्रीय स्तर पर जो पर्व मनाएं जाते हैं उन सभी को संपूर्ण राष्ट्र के साथ एक ही दिन मनाने का आप सभी से आग्रह करते है।

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