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भोटिया जनजाति की लोक कथा पर आधारित फिल्म पाताल ती..

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भोटिया जनजाति की लोक कथा पर आधारित फिल्म पाताल ती..


पताल ती (होली वाटर) लघु फिल्म का स्टूडियो यूके13 की टीम ने फिल्म का निर्माण किया है। फिल्म के निर्माता निर्देशक संतोष सिंह रावत और मुकुंद नारायण ने इस फिल्म में हिमालय क्षेत्र के एक गांव के जीवन का फिल्मांकन किया है। इस फिल्म के लिए टीम ने 20 दिन में 4500 मीटर की ऊंचाई तक 300 किमी से ज्यादा पैदल यात्रा की है।

यह फिल्म भोटिया जनजाति की लोक कथा पर आधारित है जिसमें एक किशोर पोता अपने मरणासन दादा की आखिरी इच्छा पूरी करने के लिए भूत और भौतिक के बीच की दूरी को नापता है। प्रकृति और जीवन के बीच संघर्ष इस फिल्म को मानवीय रूप से भी संवेदनशील व भावपूर्ण बना देता है।
फिल्म में प्राकृतिक रोशनी का बेहतरीन उपयोग किया गया है। साथ ही कलाकारों के नाममात्र संवाद ने भी इसे खास बनाया है। फिल्म में आयुष रावत धन सिंह राणा, कमला कुंवर, भगत बुरफाल ने मुख्य भूमिका निभाई है। फिल्म के एग्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर गजेंद्र रौतेला व सत्यार्थ प्रकाश शर्मा हैं। फिल्मांकन बिट्टू रावत व दिव्यांशु रौतेला ने किया है।

फिल्म निर्माण के लिए व्यवस्थाएं जुटाने में गोरणा निवासी रजत बर्त्वाल ने अहम भूमिका निभाई है। निर्देशक संतोष सिंह रावत और एग्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर गजेंद्र रौतेला बताते हैं कि पताल ती लघु फिल्म ने लोक भाषा के साथ कला को नई पहचान देने का काम किया है। साथ ही नए कलाकारों की प्रतिभा को मंच देने में अहम रोल अदा किया है। आने वाले समय में उत्तराखंड में फिल्म निर्माण की दिशा में भी नए मौके मिलेंगे।

उत्तराखंड की लघु फिल्म पताल ती को संजोने में हालीवुड फिल्म निर्माण से जुड़े लोगों का भरपूर सहयोग मिला। इस फिल्म के पोस्ट प्रोडक्शन में ध्वनि संयोजन ऑस्कर विजेता रेसुल पुकुट्टी (स्लम डॉग मिलेनियर), एडिटिंग का काम संयुक्ता काजा (तुम्बाड़ वेब सीरीज) और पूजा पिल्लै (पाताल लोक) और रंग संयोजन में ईरान के हामिद रेजाफातोरिचअन ने सहयोग किया है।

फिल्म की बी.एस.बिष्ट ने समीक्षा की है। 👇

हमारे गांव के पड़ोसी गांव मिलकर जिन जंगलों में अपनी जरूरत की लकड़ी लेने, सूखे पत्ते और घास लेने जाते थे, वहां रास्ते में सबसे पहले, जाते समय एक छोटा सा प्राकृतिक श्रोत मिलता था।सड़क के नजदीक, छोटा सा जल कुंड, जिसका पानी गर्मियों में थके, प्यासे जंगल से वजन उठाकर लाते ग्रामवासी परिजनों की प्यास बुझाता था। वह जगह सबसे पहले बिकी और उसके मालिक तो गुजर चुके थे।तीन लड़के थे।तीनों ने जमीन के पैसे आपस में बांटे और खूब ऐश की।फिर एक दिन पता चला कि दो ने आत्महत्या कर ली और एक कहीं अपनी गृहस्थी लेकर चला गया है। अब उस जगह पर सेठ का पहरा है।पानी पर भी और जमीन, रास्ते पर भी। तारबाड़ लगी है।अब कोई घसियारी भी वहां नहीं जाती।असल में अब जंगल में घास काटने ही कोई नहीं जाता क्योंकि उसी रास्ते के कई हिस्सों में, वहां के जल श्रोतों में, ग्रामीण महिलाओं के आराम करने की जगहों में बिल्डर का कब्जा है।सख्त पहरा है।जिसके पहरेदार नहीं जानते कि इन जगहों से परंपरागत रूप से ग्रामजनों का क्या रिश्ता रहा है…
उसके बाद जाने पर फिर चट्टान के पास एक और श्रोत आता है, जहां पर एक विश्राम होता था।
फिर नीचे उतरते लोगों को पुराने लोगों द्वारा बनाए पोखर मिलते थे।जो अब नहीं हैं।क्योंकि अब वे रास्ते बंद हैं।पानी के श्रोतों पर कब्जा हो चुका है।पशु चारण का जंगलों में प्रवेश निषेध है। पड़ाव डालना मना है।अब कोई पोखर नहीं बनाता है। अब कुछ टूरिस्ट जाते हैं।कुछ अवैध शिकारी और जंगलों में मौज करने वाले लोग।


पताल ती यानि पवित्र जल …
जिस पर बनी लघु फिल्म को देखकर यह याद आया कि हमसे कब हमारा पवित्र पानी, सात पवित्र चोटियां के पास बने प्राकृतिक जल श्रोत छीन लिए गए हैं, हमको पता ही नहीं चला।
यह सिर्फ पानी की बात नहीं है।इसके साथ जगलों से स्थानीय लोगों के रिश्ते खत्म हुए हैं।जंगलों में गए जाने वाले गीत बनने बंद हुए हैं।वे संबंध जिनमें लोग, पेड़ पौधे, जड़ी बूटियां, कंद मूल फल और तमाम वन्य जीव, मधु मक्खी और तितलियां शामिल थी, सबसे लोगों के संबंध टूट चुके हैं।
जिसके छूटते ही जल श्रोत, जैव परितंत्र के विविध अवयव और प्राकृतिक जल भंडारण की व्यवस्था भी खतम होती गई है।वे सभी मानवीय प्रयास जिनके कारण स्थानीय जल श्रोतों में वर्ष भर पानी रहता था।बड़े चौड़ी पत्ती के वृक्षों को जड़ में पानी मिलता था और आग लगने की घटनाओं पर नियंत्रण हो जाता था, सभी कुछ बाधित हुआ है। नाजुक मध्य हिमालय की वह मान्यताएं, परंपराएं भी लुप्त हो गई, जिनमें जंगलों में सिद्ध साधना स्थलों का होना, वन देवियों का होना माना जाता था और यह भी माना जाता था कि यहां जाकर शोर नहीं करना है।कच्चे, हरे पेड़ों पर औजार नहीं मारने हैं।किसी भी वन्य प्राणी को नहीं मारना है, क्योंकि यह सिद्ध तपस्वियों की भूमि है, जो साधनारत रहते हैं।सुबह पौ फटने से पहले उनके हल्के से चलने और शंख ध्वनि की आवाजें पूरी पहाड़ियों में सुनाई देती है।वे मनुष्य , पशुओं और वनों के रक्षक हैं।यह पवित्र श्रोत उन्हीं के द्वारा बनाए गए हैं।जिनका पानी हरेक प्यासे मनुष्य, वन्य प्राणी और वृक्ष वनस्पतियों के जीवन को बचाने के लिए है।जिन पर कोई कब्जा नहीं करता है।अन्यथा सिद्ध देवता नाराज हो जाते हैं।
हमारी लोक मान्यताओं में जो कुछ विश्वास, अंध विश्वास थे, उनमें संरक्षण का भाव था, मुक्ति कामना थी और सबके हित को ध्यान में रखा जाता था।
वन विभाग के पढ़े लिखे अफसरों और नीति निर्माताओं ने उनको अस्वीकार किया।फिर हिमालय से बाहर के उन लोगों ने इनको बुरी तरह तोड़ा, जिनके पास हिमालय के नाजुक परितंत्र और स्थानीय लोक मान्यताओं की कोई समझ ही नहीं थी। लोग अंदर से आहत और अपमानित हुए और उन्होंने अपने ज्ञात पवित्र स्थानों को छोड़कर जहां भी अवसर मिला अपने लिए मनमानी की….
पवित्रता का भाव समाप्त होने के साथ ही जंगलों, वन्य प्राणियों, जैव विविधता के समापन की भी शुरुआत हो चुकी थी, जो अब विनाशक स्थिति तक पहुंच चुकी है।
” दुनिया भर के पर्यावरण विशेषज्ञ यह कह रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण क्या और कितना प्रभाव पृथ्वी के जीवन पर पड़ेगा, वे उसका अनुमान नहीं कर सकते हैं”
तब लोक के अंदर मौजूद क्षमता, अनुभव और ज्ञान को सम्मान देकर शायद कोई समाधान खोजा जा सकता है।
पर यह तभी होगा जब पवित्र जल के भाव को पहाड़, पेड़, जड़ी बूटियां, खेती बागवानी और वन्य जीवन और लोगों के रहने जीने तक पुनः स्थापित किया जा सके।
वह एक फिल्म थी लेकिन जलवायु परिवर्तन और उससे बचने के उपायों पर काम करना एक वास्तविकता है, जिसे आज और अभी शुरू किया जाना बेहद जरूरी है….

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