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विश्व गौरैया दिवस के अवसर पर गौरैया से जुड़ी कुछ यादें !

उत्तराखण्ड

विश्व गौरैया दिवस के अवसर पर गौरैया से जुड़ी कुछ यादें !

सुना है आज विश्व गौरैया दिवस है . हां वही गौरैया जिसके साथ हम और आप बचपन में खूब खेला करते थे जिसकी चूचू की आवाज हमारे दिल को छू जाती थी . जिसको देखकर हम भी आसमान में उड़ना चाहते थे हां वही गौरैया जिसमें एकता ऐसी की एक ही पेड़ पर सारा ग्रुप बैठ जाए अब वह कम दिखाई दे रही हैं इसके पीछे का कारण क्या है यह तो मैं स्पष्ट नहीं कर सकता परंतु जैसे इंसान भी अब संयुक्त रूप में रहना पसंद नहीं करते इस तरह से गौरिया ने भी संयुक्त रहना कम कर दिया है हमने देखा पहाड़ों में मुख्य दरवाजा होता था उसके ऊपर उनके रहने के लिए विशेष घर बनाया जाता था और यह घर की शोभा को खूब बढ़ता था जब उनके बच्चे होते थे तो ऐसा लगता था कि हमारे घर में खुशी और ज्यादा बढ़ गई है जैसे पहाड़ों में लोगों ने पलायन कर अपने घरों को खाली कर दिया है इस तरह से कहीं गौरेया ने भी पलायन कर पहाड़ के घरों को खाली कर दिया है शहरों में तो कहीं अभी भी दिखती हैं लेकिन मुझे पहाड़ों में नहीं दिख रही ..हां जब पहाड़ों के लोगों के अस्तित्व को सरकारें नहीं बचा पा रही तो गौरेया के अस्तित्व को बचाने के लिए प्रयास कैसे किया जा सकता है लेकिन एक बहुत ही बेहतर कविता जो हमारे गुरुजी खटीमा के प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक नवीन पोखरिया जी द्वारा लिखी गई है इसको आपके बीच पेश कर रहा हूं ..

तुम आती हो न आज भी,
जैसे कल आती थी,

पहले जब बचपन था,
तो हर सुबह तुमसे थी,
पता है न तुम्हें,
तुम्हारी आवाज की नकल,
को आईने के सामने
मैं सीखता तो,
ईजा मुझ पर खित-खित हंसती थी,

तुम आती हो न आज भी,
जैसे कल आती थी,

उड़ना सिखाती जब,
तुम अपने बच्चों को,
तुम्हें देख,
मैंने भी तिमुली के पातों के पंख लगा,
कई दफा चोट खाई थी,
घर की देली में,
तिनके बुनती,
दाना चुगती,
गांव के नौले में,
तुम कैसे बेशर्म नहाती थी,

तुम आती हो न आज भी,
जैसे कल आती थी,

मुझे आज भी ढूंढती होगी न तुम,
पर,
मेरी सुबह होती है शुरू,
जब सर पे चमकता है सूरज,
शायद,
तभी देख नहीं पाता मैं,
और सुन नहीं पाती हो तुम मुझे,
आज फेसबुक मेरी खास दगड़िया,
पहले तो तुम्हीं,
मेरी नानतिनपन की साथी थी,

तुम आती हो न आज भी,
जैसे कल आती थी,

मैं भी तो,
पटालों-लकड़ी का घरौंदा छोड़,
भाग आया हूँ सीमेंट की छत में,
बुखार से तप रहे हैं पेड़,
ईटों की खरपतवार,
उग आई है गाड़ा-खेतों में,
अब तिनके चुनना,
मड़वा-मक्का कहाँ से लाती हो,
पहले सुकूँ से कैसे तुम
गंगा की तरह लहराती थी,

तुम आती हो न आज भी,
जैसे कल आती थी।।।।

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