उत्तराखण्ड
भू कानून में सरकार ने दिया धोखा, अब बीजेपी को मुश्किल में डाल देगा यह फैसला ? युवा अब अंतिम लड़ाई के लिए हैं तैयार ।।
17 साल की उम्र में राज्य की आखों में बांध दी थी पट्टी।
हल्द्वानी – आखिर उत्तराखंड के लोग राज्य बनने के बाद भी आज अपने आप को ठगा हुआ महसूस क्यों कर रहे हैं ? आखिर क्या उत्तराखंड के लोगों पर कोई संकट आने वाला है जिसे सरकार नहीं समझ पा रही ? क्या आने वाले समय में उत्तराखंड के बहुसंख्यक लोगों पर अत्याचार होगा ? यह हम इसलिए कह रहे हैं क्योंकि उत्तराखंड के युवा जिस मामले को लेकर लगातार 4 सालों से सड़कों पर हैं युवाओं की उस बात को सरकार ठीक से नहीं सुन रही है..
उत्तराखंड में भू कानून का मुद्दा जन भावनाओं से इतना गहरा जुड़ गया है कि स्कूल जाने वाले युवा भी इस कानून की मांग करने लगे हैं । दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र हो या कम ऊंचाई वाले पहाड़ या फिर तराई क्षेत्र सभी अपनी जमीन को बिकता देख दुखी हैं । अब युवाओं को आने वाले समय में खतरा नजर आ रहा है ,खतरा उन बाहरी लोगों से जो लगातार उत्तराखंड की जमीन को बड़ी मात्रा में खरीद रहे हैं।
राज्य के बदलते स्वरूप के लिए लोग ख़ुद जिम्मेदार
लेकिन सबसे बड़ी बात तो यह है कि अगर उत्तराखंड के लोग खुद ही अपनी जमीन को नहीं बेचें तो उनकी जमीन को कोई कैसे खरीद सकता है , उत्तराखंड के लोग खुद ही जमीन बेच रहे हैं तो फिर उन्हें कानून की क्या आवश्यकता है ।लेकिन आंदोलन कर रहे युवाओं का कहना है कि जमीन बेचने वाला गुट अलग है और कानून बनाने की मांग करने वाला गुट अलग यानी कि आज उत्तराखंड के लोग दो हिस्सों में बट गए हैं और जो लोग नहीं समझ पा रहे हैं जमीन बेचना कितना नुकसानदायक है उनके लिए कानून की आवश्यकता पड़ रही है.
लोगों में गुस्सा इस बात पर है कि सशक्त भू कानून नहीं होने की वजह से राज्य की जमीन को राज्य से बाहर के लोग बड़े पैमाने पर खरीद रहे हैं और राज्य के संसाधन पर बाहरी लोग हावी हो रहे हैं, जबकि यहां के मूल निवासी और भूमिधर अब भूमिहीन हो रहे हैं। इसका असर पर्वतीय राज्य की संस्कृति, परंपरा, अस्मिता और पहचान पर पड़ रहा है। अलग राज्य बनने के बाद इस हिमालयी राज्य की जनाकांक्षाओं की उम्मीदों को नए पंख नहीं मिल पाए ।। लेकिन आज पर्वतीय क्षेत्रों में पलायन रुकने का नाम नहीं ले रहा है। और उस स्थान में बाहरी लोगों का जाकर बसना लगातार बढ़ रहा है, बड़े पैमाने पर भूमि की अनियोजित खरीद-फरोख्त ने राज्य को बहुत ज़्यादा नुकसान पहुंचाया है साथ ही कोई भी सरकार द्वारा इस पर अंकुश नहीं लगा पा रही है।
सीएम रावत की भूल से राज्य की स्थिति कमज़ोर
इस लिए प्रदेश में सशक्त भू-कानून की मांग को लेकर हर रोज़ राजनीति गर्माती रहती है।आंदोलन कर रहे युवाओं के अनुसार इसका एक दोष बीजेपी पर भी जाता है 2017 में त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने जब भू-कानून में संशोधन किया , उस समय सरकार का उद्देश्य पूंजी निवेश को आकर्षित करने, कृषि, बागवानी के साथ ही उद्योग, पर्यटन, ऊर्जा, शिक्षा व स्वास्थ्य समेत विभिन्न व्यावसायिक व औद्योगिक प्रयोजन के लिए भूमि खरीद का दायरा 12.5 एकड़ से बढ़ाकर 30 एकड़ तक किया गया। लेकिन इसका फ़ायदा भू माफियाओं ने ख़ूब उठाया ।। भले ही आज कांग्रेस पार्टी भी धीरे धीरे भू कानून की मांग उत्तराखंड में कर रही हो लेकिन वह भी दबाव नहीं बना पा रही है ।
तीन साल में युवाओं को नहीं सुना गया ।
लोगों द्वारा तीन सालों से भूमि कानून के इसी लचीले रूप का विरोध खूब किया गया। इसलिए तब से उत्तराखंड में भी हिमाचल की तर्ज पर भूमि कानून बनाने की मांग की जा रही है। हैरानी की बात यह है कि दोनों राज्यों की भौगोलिक परिस्थितियां तकरीबन समान हैं। लेकिन फिर भी दोनों राज्यों में लागू भूमि कानूनों में बड़ा अंतर है। हिमाचल में कृषि भूमि खरीदने की अनुमति तब ही मिल सकती है, जब खरीदार किसान ही हो और हिमाचल में लंबे समय से रह रहा हो। पिछले कुछ वर्षों से प्रदेश में हिमाचल की भांति सशक्त भू-कानून की मांग तेज हुई तो भाजपा की पुष्कर सिंह धामी सरकार ने इस संबंध में कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए, वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी सरकार ने प्रदेश में वर्तमान भू-कानून में संशोधन के दृष्टिगत पूर्व मुख्य सचिव सुभाष कुमार की अध्यक्षता में समिति का गठन किया था। सुभाष कुमार समिति ने पांच सितंबर, 2022 को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी। लेकिन अभी तक उस पर कोई काम नहीं हुआ है ।।
अन्य हिमालयी राज्य ने बनाए कानून केवल उत्तराखंड में मिली है छूट
अलग-अलग राज्यों में जमीन को लेकर अलग-अलग नियम हैं। जम्मू कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर तक हिमालयी राज्यों ने अपनी जमीनें सुरक्षित की हैं, सिर्फ उत्तराखंड ही एकमात्र राज्य है जहां कोई भी आकर जमीन खरीद सकता है।इसी के साथ उत्तराखंड में 1950 के मूल निवास की समय सीमा को लागू करने की मांग की जा रही है। इसके मुताबिक देश का संविधान लागू होने के साथ वर्ष 1950 में जो व्यक्ति जिस राज्य का निवासी था, वो उसी राज्य का मूल निवासी होगा। वर्ष 1961 में तत्कालीन राष्ट्रपति ने दोबारा नोटिफिकेशन के जरिये ये स्पष्ट किया था। इसी आधार पर उनके लिए आरक्षण और अन्य योजनाएं चलाई गई ।
राज्य गठन के बाद पहली बार सत्ता में काबिज़ सरकार ने भी की थी मूल निवास में चूक
पहाड़ के लोगों के हक और हितों की रक्षा के लिए ही अलग राज्य की मांग की गई थी। उत्तराखंड बनने के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी की अगुवाई में बनी भाजपा सरकार ने राज्य में मूल निवास और स्थायी निवास को एक मानते हुए इसकी कट ऑफ डेट वर्ष 1985 तय कर दी। जबकि पूरे देश में यह वर्ष 1950 है। लेकिन मूल निवास व्यवस्था लागू करने की मांग बनी रही। लेकिन वर्ष 2012 में इस मामले से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए उत्तराखंड हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि 9 नवंबर 2000 यानी राज्य गठन के दिन से जो भी व्यक्ति उत्तराखंड की सीमा में रह रहा है।उसे यहां का मूल निवासी माना जाएगा।
इस कारण बीजेपी को हो सकता है नुकसान ?
फिर भी इस मामले में भी सरकार कोई ठोस कदम उठाते हुए नहीं दिख रही है जिससे लगातार लोगों में गुस्सा बढ़ रहा है और अभी भी आंदोलन होते जा रहे हैं अगर सरकार ने समय रहते इस पर कदम नहीं उठाया तो इसका नतीजा उपचुनाव सहित निकाय चुनाव और 2027 के विधानसभा चुनाव में भी पड़ सकता है ।।