उत्तराखण्ड
कहानी मुनस्यारी के नैन सिंह रावत की जिनकी मौत के 109 साल बाद डाक टिकट जारी हुआ ।।
आपने वास्कोडिगामा – कोलंबस जैसे अनेक लोगों के नाम अवश्य सुने होंगे कहा जाता है कि उन्होंने अनेक क्षेत्रों की खोज की थी लेकिन जिन स्थानों की खोज करने में यह भी असफल हो गए उस जगह की खोज किसने की थी यह आज भी इतिहास के पन्नों से कहीं दूर है. आज हम एक ऐसे व्यक्ति की बात करने वाले हैं जिनकी यात्रा के बाद हिमालय के पीछे की कहानी दुनिया के सामने आई , दुनिया में पहली बार लहासा का नक्शा बन सका और जिन्होंने बताया कि ब्रह्मपुत्र और स्वांग पो एक ही नदी हैं इसके लिए उन्होंने 800 किलोमीटर नदी की दूरी पैदल ही तय की थी उनकी यात्राएं आज तक के सभी विदेशी दार्शनिक और खोजकर्ताओं से कहीं बेहतर रही यही कारण रहा कि सर्वे आफ इंडिया का गोल्ड मेडल भी उनके नाम हो गया उन्हें पंडितों का पंडित कहा जाता था जी हां हम बात कर रहे हैं नैन सिंह रावत की जिन्होंने पैरों से हिमालय की पहाड़ियों को नाप दिया था ईस्ट इंडिया कंपनी का भारत में आने के बाद सभी क्षेत्रों को अपने अधिकार में करना उनका एकमात्र उद्देश्य था इसके लिए उनको लगा कि हिमालय के आसपास के क्षेत्र को भी गहराई से समझा जाए जिसके लिए उन्होंने सर्वे आफ इंडिया की स्थापना की ..यह बहुत बड़ी चुनौती थी संपूर्ण भारत के सभी जगहों का सर्वे हो इसके लिए उन्होंने 1802 में ग्रेट आर्क की भी स्थापना की .1852 में हिमालय की पीक माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई का भी पता लग चुका था लेकिन हिमालय के पीछे तिब्बत अभी भी उनकी पहुंच से बहुत दूर था उस समय तक सर्वे में करोड़ों रुपए और हजारों लोगों की मौत हो चुकी थी जितना किसी युद्ध में तक नहीं होता था लेकिन इतने पैसों के खर्च होने के बाद भी वह तिब्बत नहीं पहुंच पाए अक्सर तिब्बत के प्रशासक बाहरी लोगों को अपने क्षेत्र में नहीं आने देते थे
अगर कोई आए भी तो उन्हें मार दिया जाता था इसके कारण अनेक लोग वहां पहुंचे और वापस नहीं आ पाए तब उनके समझ में आया कि इसके लिए एक ऐसे व्यक्ति को चुना जाए जो तिब्बती भाषा को जानता हो उसकी शक्ल – सूरत भी उनसे मिलती हो और खान-पान भी ..इस तरह के लोग भारत में केवल जोहार घाटी में ही होते थे यहां से अनेक लोगों को ट्रेनिंग दी गई लेकिन इसमें से पास हुए नैन सिंह रावत .. नैन सिंह रावत को तिब्बती के साथ-साथ हिंदी फारसी और अंग्रेजी भी आती थी .नैन सिंह रावत की जिन्दगी बहुत ही दुखों के साथ चल रही थी नैन सिंह के पिता अमर सिंह को गांव में लोग “लाटा बूढ़ा” कहते थे वह भारत तिब्बत व्यापार से जुड़े हुए थे उनके पिता अमर सिंह ने उस समय कुछ ऐसा किया जिसकी सजा नैन सिंह को भुक्तनी पड़ी अमर सिंह ने शादीशुदा होने के बाद भी एक दूसरी शादीशुदा महिला से विवाह कर लिया था इसके बाद उनके परिवार और उनके आसपास के लोगों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया और जमीन से बे- दखल कर दिया तब भटकते भटकते नैन सिंह मुनस्यारी से आगे एक नदी के किनारे आकर बस गए उन्होंने अपनी संपत्ति को वापस पाने के लिए अंग्रेजों के द्वारा बनाए कोट के आगे हाथ फैलाए लेकिन उन्हें असफलता मिली जिससे परेशान होकर उनकी दोनों पत्तियां ने एक साथ नदी में कूद मार दी और वह मर गई लेकिन उन्होंने फिर भी हार नहीं मानी .तब साल आया 1825 उन्होंने एक जसूली देवी नामक महिला से शादी कर ली और उनके चार बच्चे हुए जिसमें दूसरे नंबर के थे नैन सिंह रावत..नैन सिंह रावत का जन्म 21 अक्टूबर 1830 को हुआ था लेकिन कुछ सालों बाद मां का निधन हो गया और 18 साल होते-होते पिता की भी मृत्यु हो गई . मिलम उस समय व्यापार के लिए बहुत ही आबाद रहता था भारत से अनेक समान निर्यात किए जाते थे और तिब्बत से आयात किया करते थे
इस समय नैन सिंह बहुत ही कमजोर और लाचार नजर आ रहे थे .21 साल की उम्र में वह पहली यात्रा मिलम से मुनस्यारी की अनेक पहाड़ियों को नापते हुए पहले जोशीमठ फिर बद्रीनाथ पहुंचे तो माणा गांव में कुछ समय बाद उनकी शादी हो गई और वह घर जमाई बन गए लेकिन कुछ साल बाद वह अपनी पत्नी को लेकर मिलम वापस पहुंच गए लेकिन पैसों की व्यवस्था अभी भी नहीं हो पा रही थी अब कुछ पैसे उधार लेकर वह दुबारा व्यापार के लिए निकल पड़े लेकिन अनेक व्यापार करने के बाद भी उन्हें नुकसान हो रहा था अब वह कुछ भी करने के लिए तैयार बैठे थे तब उन्हें पता चला कि जर्मन से आए हुए कुछ वैज्ञानिक लद्दाख से आगे की ओर जा रहे हैं लेकिन यहां किसी कारण से काम की बात नहीं बन सकी . परेशान होकर फिर वह 40 दिनों की लंबी पैदल यात्रा करके हिमाचल पहुंचे जहां उनकी मुलाकात कुछ नए वैज्ञानिकों से हुई .नैन सिंह जल्दी ही कंपास चलाना सीख गए थे इन्होंने वैज्ञानिकों को इतना खुश किया कि वह इन्हें 3 साल के लिए लंदन ले जाना चाहते थे लेकिन उन्होंने उस समय सामाजिक बहिष्कार हो जाने के डर से यहां जाने से मना कर दिया और वह वहां से भाग गए कुछ समय के लिए अपने चचेरे भाई की तलाश में एक जगह रुक गए लेकिन फिर उन्हें अपने गांव वापस जाना पड़ा , उनकी आर्थिक स्थिति अभी भी बिलकुल वैसी ही बनी हुई थी वह अब मिलम में अध्यापन का कार्य कर रहे थे लेकिन तब एक व्यक्ति की सलाह पर वह सर्वे ट्रेनिंग के लिए देहरादून चले गए यहां उन्हें सर्वेक्षण के अनेक उपकरणों के बारे में बताया गया जिसमें से कुछ उपकरण नैन सिंह चलाना पहले से ही जानते थे , 1 साल के बाद उन्हें काम मिला कि वह मिलन से मानसरोवर होते हुए तिब्बती जाए और इसका नक्शा बनाएं . सर्वे करने वाली मशीन बहुत बड़ी हुआ करती थी अगर कोई भी उनको वहां ले जाए तो तिब्बती लोग उन्हें मार दिया करते थे वह वजन के साथ-साथ दिखने में भी बड़ी थी तब नैन सिंह रावत ने दोनों पैरों के बीच में 36 इंच लंबी रस्सी बांधते हुए 2000 कदम में एक मील माना था जो बिल्कुल सही होता था नैन सिंह रावत 16 साल तक घर नहीं आए तब उनकी पत्नी हर साल उनके लिए कोट पैजामा बनाया करती थी और उन्हें लगता था कि वह मर गए लेकिन जब वापस आए तो उन्हें 16 कोर्ट पजामा दिए गए उन्हें प्रति महीना ₹20 मिलते थे वह 1865 में काठमांडू से होते हुए तिब्बती पहुंचे और सबसे पहले उन्होंने ही समुद्र तल से लहासा की ऊंचाई दुनिया को बताई , तिब्बत को नापते हुए नैन सिंह ने 1200 मील की पैदल यात्रा की और अपना पहला अभियान 1866 में पूरा किया .
उन्होंने ही पहली बार दुनिया को बताया कि 800 किलोमीटर पैदल दूरी तय करने के बाद स्वांग पो और ब्रह्मपुत्र एक ही नदी है इसी सर्वे के कारण फिर तिब्बत का सही नक्शा बन पाया
इसके बाद उनकी यह यात्राएं चलते रही उन्होंने अनेक किताबें लिखी जो किताबें पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हुई इसी के साथ-साथ उन्हें अनेक पुरस्कार दिए गए नैन सिंह रावत का पूरी दुनिया में नाम प्रचलित हो गया और 1895 में वह इस दुनिया को छोड़कर हमेशा के लिए चले गए लेकिन जाने से पहले तिब्बत के बारे में दुनिया को समझ में आ गया था उनकी मौत के कई सालों बाद 27 जून 2004 में उन पर भारतीय डाक ने डाक टिकट जारी किया ..