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सावधान – अस्कोट -आराकोट यात्रा अपने लक्ष्य, संकल्प, उद्देश्य से भटक कर कहीं राजनीतिक यात्रा तो नहीं बन गई : 50 सालों में कितनी बदल गई यात्रा ?

पिथौरागढ़

सावधान – अस्कोट -आराकोट यात्रा अपने लक्ष्य, संकल्प, उद्देश्य से भटक कर कहीं राजनीतिक यात्रा तो नहीं बन गई : 50 सालों में कितनी बदल गई यात्रा ?

अस्कोट-आराकोट अभियान की प्रस्तावना

पिथौरागढ़ – पाचवां अस्कोट-आराकोट अभियान 25 मई से शुरू हो रहा है । हम इसके बारे में इस लेख में विस्तार से बात करने वाले हैं हम इस लेख में बताएंगे कि आखिर जिस अभियान की शुरुआत पहाड़ बदलने के लिए की गई थी, लेकिन आज भी वह पहाड़ नहीं बदल पाया । हम इस लेख में इसके इतिहास ,वर्तमान, और भविष्य पर भी प्रभाव डालने जा रहे हैं, इसके लाभ और इसके हानियों के बारे में बात करेंगे । हम शुरुआत में ही यह कह देना चाहते हैं अगर आप इस यात्रा की गहराई तक जाना चाहते हैं तो आपको यह लेख पूरा पढ़ना पड़ेगा । लेकिन पहले हम आज के वक्त में इस अभियान की मूल जड़ कहां खो गई उसे पर बात करने जा रहे हैं उसके बाद हम इतिहास जानेंगे ।।

कहां से कहां तक होती है विश्व प्रसिद्ध यह यात्रा

नेपाल सीमा से लगे पांगू से शुरू होकर हिमाचल से लगे आराकोट में यात्रा का समापन होगा। 1150 किमी की यात्रा में देश के कई विश्व विद्यालयों के शिक्षक, छात्र, सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार, स्वतंत्र पत्रकार, छायाकारों सहित विदेशी यात्री भी शामिल होंगेे। इस यात्रा में 45 दिन लगेंगे। इस यात्रा में जल, जंगल, जमीन, पर्यावरण, पलायन, रीति-रिवाज आदि का अध्ययन किया जाएगा । हर दस साल में होने वाले अभियान में यात्रीगण मार्ग के गांवों का सर्वेक्षण और अध्ययन कर गांवों में हो रहे बदलावों की जानकारी एकत्र करते हैं। इस वर्ष पाचवां यात्रा अभियान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्री देव सुमन के जन्म दिन पर 25 मई से शुरू हो रहा है । 45 दिन की यात्रा का समापन आठ जुलाई को आराकोट जीआईसी स्कूल में होगा।

अभियान में 20 वर्ष की उम्र से लेकर 82 साल के बुजुर्ग शामिल

अभियान में 20 वर्ष की उम्र से लेकर 82 साल के बुजुर्ग शामिल हो रहे हैं। शुरुआत में अस्कोट से 25 यात्री रवाना होंगे। इसके बाद अलग-अलग पड़ावों में लोग जुड़ेंगे। विकास, पलायन, पर्यावरण आदि में दशकीय परिवर्तनों का भी प्रमाणिक अध्ययन किया जाएगा।

अस्कोट-आराकोट यात्रा के पीछे बदलाव, शांति या दिखावा

अस्कोट-आराकोट यात्रा के पीछे बदलाव, शांति या दिखावा पर बात होने जा रही है इस बार की यात्रा मेरे लिए कुछ खास होने वाली है क्योंकि इस बार की यात्रा में मेरे बड़े भाई #हर्ष काफर इस यात्रा का हिस्सा बनने जा रहे हैं यात्रा संपन्न होने के बाद हम कुछ प्रश्नों के उत्तर जान सकते हैं लेकिन मेरे मन में कुछ सवाल उपज रहे हैं, पहला सवाल तो यही कि दस साल में होने वाली इस यात्रा का सही उद्देश्य क्या है ? पहाड़ के गांवों को जानना-पहाड़ को समझना या इस बहाने मौज मस्ती करना ? पहाड़ की रिपोर्टिंग, पत्रकारिता, फोटोग्राफी, कविता या फिर हर मोर्चे पर बर्बाद हो रहे पहाड़ के पक्ष में एक मजबूत दबाव संगठन तैयार करना? ऐसा दबाव संगठन जिसके अनुभव और शोध का असर सरकार की नीतियों पर दिखे? हां आपको यहां पर थोड़ा सा हास्यप्रद लगा होगा कि एक ऐसा दबाव संगठन जिसकी सरकार अपनी नीतियों में असर दिखाएं, इसका तो सीधे जवाब है ना ना बिल्कुल नहीं । आज की सरकार ख़ुद ही राजा है,लेकिन ठहरो पहले दो सवालों के जवाब बहुत आसान हैं। ।

पहाड़ समझना है तो कोई प्रोपेगंडा की आवश्यकता नहीं

पहाड़ के गांवों को जानना है तो उसके लिए दस साल का इंतजार करने की क्या आवश्यकता ,उसके लिए आप कभी भी यात्रा पर निकल सकते हैं और उसके लिए कोई प्रोपेगंडा की आवश्यकता भी नहीं। बड़ी संख्या में लोग ये काम कर भी रहे हैं। पहाड़ की रिपोर्टिंग की जहां तक बात है तो वह पत्रकार और पहाड़ों के युटुबर ( स्वतंत्र पत्रकार ) भी यही काम सालों से बखूबी कर रहे हैं। इस दौर में भी आम जन को ऐसे पत्रकारों पर जबरदस्त भरोसा है। यहां तक लोग हमें फोन करके भी अपनी उम्मीदों के बारे में बताते हैं और हर समस्या की रिपोर्टिंग होती है जिससे ही पता चल पाता है कि महिला ने खेत में बच्चे को जन्म दे दिया, बुजुर्ग ने अस्पताल लाते वक्त डोली में दम तोड़ दिया। इस गांव में पानी नहीं आ रहा है, या बिजली के पोल कहां उखड़ गए ।। नेता यहां मौज उड़ा रहे हैं, आदि आदि । यह सब रोज के बदलाव जख्म रिपोर्टिंग का हिस्सा ही तो हैं।

सोशल मीडिया ने बदल दिया पहाड़

अब इस पर सोशल मीडिया भी शानदार काम कर रहा है जिसने लोगों को मदद से लेकर मुकाम तक दिया है। ऐसे में दस साल में रिपोर्टिंग का कोई मतलब नहीं रहा जाता है । अगर सच में जन सरोकारों से मतलब होता तो ऐसी यात्रा से नेता घबराने लगता, उनकी कुर्सी डगमगाने लगती ,नेताओं को रात को नींद नहीं आती ।। यह बातें में इसलिए कह रहा हूं क्योंकि अब नेता इस यात्रा में फंडिंग करने लगे हैं जब नेता पत्रकारिता में ही फंडिंग करने लग जाए तो वहां पत्रकारिता मर जाती है जी हां जब यात्रा में नेता सहयोग करने लग जाए वह फिर सच में यात्रा नहीं रह जाती वह केवल एक दिखलावटी यात्रा बन जाती है । इसके लिए भी हर दस साल में प्रोपेगंडा की आवश्यकता नहीं।

पांच दशकों में उत्तराखंड के हालात अफसोज जनक

आखिरी सवाल है एक मजबूत दबाव संगठन बनने का? यात्रा के पांच दशकों को उत्तराखंड के हालात से जोड़कर देखेंगे तो इस सवाल का जवाब नहीं में ही मिलेगा। यदि यात्रा पहाड़ और पहाड़ के लोगों के जीवन में बदलाव के उद्देश्य से शुरू की गई थी तो मुझे ये कहने में कोई हिचक नहीं कि पचास साल में ये यात्रा प्रोपेगंडा से एक कदम आगे नहीं बढ़ पाई है । यदि बढ़ी होती तो निश्चित तौर पर पहाड़ की दुर्दशा घटी होती। यह मेरी सरकारों से नफरत नहीं है यह अनुभव उन लोगों को भी प्राप्त होगा जो इस यात्रा में शामिल हो रहे हैं , अस्कोट से आराकोट तक अभी कुछ दिन पहले तक सुलग रहे जंगलों की राख की राफ कम नहीं हुई होगी। आग से जलकर मरे पांच लोगों की चीख भी जरूर जंगलों में महसूस की जा सकती है । इस यात्रा के अगल-बगल बने हॉस्पिटलों में बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में मरने वाले बच्चों की चीख भी आज दूर-दूर तक सुनाई दे रही होगी । लेकिन क्या पत्रकार वहां जाएंगे ? जवाब है बिल्कुल भी नहीं ! अगर हमारी यात्राएं पहाड़ परिवर्तन की हैं तो हमारी यात्राओं का असर सरकार की नीतियों पर क्यों नहीं दिखा? केवल किताब लिखकर या शोधपत्र पढ़कर यात्रा को सफल कहना तो बेमानी होगी ।

ना पहाड़ बदल पाया,ना पहाड़ की जिंदगी और भी पहाड़ समाप्त हो रहा

ताजी-ताजी आई बारिश ने आग की तपिश तो फिलहाल थाम दी है लेकिन पहाड़ों के दरकने के भयावह चित्र मानसून से पहले आने लगे हैं। यात्रा के बढ़ते साल इन चित्रों की संख्या कम करने में भी पूरी तरह असफल रहे हैं। तो क्या हमारी यात्रा इन दरकते पहाड़ों को बांधने के लिए नहीं थी? पलायन आयोग की रिपोर्ट बताती है कि इस बार यात्रियों को पिछली बार से ज्यादा गांव ऐसे मिलेंगे जहां आवभगत करने वाला कोई नहीं होगा। हालांकि यात्रा में हर दशक यात्रियों की संख्या बढ़ रही है। 2014 के पांचवें अस्कोट-आराकोट अभियान में नौ राज्यों और विदेशों के 260 से अधिक यात्रियों ने हिस्सेदारी की। यात्रियों ने अपने-अपने ढंग से अनुभवों को समेटा और प्रस्तुत किया। लेकिन इस अनुभव और प्रस्तुतिकरण से क्या हासिल हुआ? ना पहाड़ बदल पाया,ना पहाड़ की जिंदगी और भी पहाड़ समाप्त हो रहा है । बेहतर होता हम बता पाते हमारी यात्राओं के दबाव में सरकार ने ऐसी कौन सी नीतियां बनाईं जिन्होंने घरों में घुसते जंगली जानवरों को रोका, जंगली जानवरों द्वारा मारे जा रहे लोगों से रक्षा हो पाई, सिंचाई संकट से जूझते खेत तक पानी पहुंचाया, खेतों को खुलेआम रौंदते सुअर-बंदरों को रोकने का इंतजाम किया।

जब आधा पहाड़ दिल्ली – मुंबई – चंडीगढ़ में बर्तन धो रहा है तो यात्रा का क्या मतलब

दुर्भाग्य, हम ऐसा कुछ नहीं कर पाए और इन सब मुसीबतों के कारण पिछली यात्रा के बाद पहाड़ छोड़ने वालों का आंकड़ा और बढ़ता गया। और आगे भी बढ़ रहा है अगर यही हालात रही तो एक दिन यह पहाड़ बर्बाद हो जाएगा चाहे उस दिन में रहूं या ना रहुं , लेकिन मेरा पहाड़ नहीं रहेगा जब आधा पहाड़ कंपनियों में मजदूर बन चुका है, जब आधा पहाड़ होटल में खाना बना रहा है, जब आधा पहाड़ दिल्ली – मुंबई – चंडीगढ़ में बर्तन धो रहा है तो मेरा पहाड़ कैसे बदल सकता है , शायद अगली एक-दो यात्राओं के बाद वहां केवल इतिहास-भूगोल मिलेगा लोग नहीं। तो यह यात्रा बदलाव की है यह यात्रा उम्मीद की है या यह यात्रा दिखावट की यह तो आपको तय करना है ।। अगर आप यहां तक इस लेख को पढ़ रहे हैं तो आपको पता चल गया होगा की पहाड़ कि यह यात्रा कहीं ना कहीं अपने मूल स्वरूप से बदल गई है लेकिन इसका उद्देश्य बेहद ही महत्वपूर्ण और जरूरी था …

अस्कोट-आराकोट यात्रा का इतिहास

पहली अस्कोट-आराकोट यात्रा 25 मई 1974 को पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, चमोली, टिहरी, देहरादून और उत्तरकाशी जिलों के करीब 350 गांवों से होकर गुजरी साल 1974 तब के उत्तर प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्र और आज के उत्तराखंड के कुछ उत्साही और संवेदनशील छात्र पिंडारी ग्लेशियर की पदयात्रा से लौटे थे। इन छात्रों में देश के जाने-माने हिमालय विद पद्मश्री शेखर पाठक और प्रख्यात सामाजिक आंदोलनकारी स्व. शमशेर सिंह बिष्ट भी थे। पिंडर घाटी की यात्रा पर आधारित उनकी एक रपट एक स्थानीय समाचार पत्रिका में छपी थी।दुर्गम पहाड़ी जीवन की विवशताओं की झलक देती इस रपट पर प्रख्यात पर्यावरणविद सुंदर लाल बहुगुणा की नजर पड़ी । तब वह स्वयं उत्तराखंड की 120 दिनों की पदयात्रा पर थे।

1974 में उत्तराखंड के चार उत्साही युवा- शेखर पाठक, शमशेर सिंह बिष्ट, कुँवर प्रसून और प्रताप ‘शिखर’- सुंदर लाल बहुगुणा की प्रेरणा से पहली अस्कोट-आराकोट यात्रा पर निकल पड़े

बहुगुणा जी ने अल्मोड़ा कॉलेज में पढ़ रहे इन युवाओं से मुलाकात की और उन्हें उत्तराखंड के गांवों की वास्तविक समझ बनाने के लिए अस्कोट से आराकोट की पदयात्रा करने की सलाह दी। अस्कोट उत्तराखंड के पूर्वी छोर पर नेपाल सीमा पर बसा एक छोटा सा क़स्बा है और आराकोट उत्तराखंड की पश्चिमी सीमा पर हिमाचल की सीमा से लगा एक गाँव । उत्तर प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्र को उसकी चौड़ाई में नापने वाला करीब 1000 किमी लंबा यह दुर्गम पैदल मार्ग ऊंचे इलाकों में बसे लगभग 350 गांवों से गुजरने वाला था। और इस चुनौती को स्वीकार करने वाले यात्री अपने जीवन का सबसे मूल्यवान सबक सीखने जा रहे थे।इस तरह 1974 में उत्तराखंड के चार उत्साही युवा- शेखर पाठक, शमशेर सिंह बिष्ट, कुँवर प्रसून और प्रताप ‘शिखर’- सुंदर लाल बहुगुणा की प्रेरणा से पहली अस्कोट-आराकोट यात्रा पर निकल पड़े। यात्रा के दौरान बीच-बीच में अनेक सहयात्री आते और जाते रहे।उस यात्रा को याद करते हुए शेखर पाठक कहते हैं, “हम चाहते थे कि अपने गर्मिर्यों के अवकाश को उत्तराखंड के उन गाँवों में बिताएं जहां न कोई नेता जाता है, न अधिकारी और न ही कोई कर्मचारी। मोटर सड़कों तक तो सब ठीक दिखता है। फिर लोग घर से बाहर बन-ठन कर भी निकलते हैं। इसलिए अभाव और गरीबी का दर्शन करने के लिए हमने गाँव घूमने का कार्यक्रम बनाया। हमारा मकसद था वहाँ के लोगों के प्रत्यक्ष संपर्क में जा कर उन के सुख-दुःख में एक रात शामिल होना। शराबबंदी, जंगलों की सुरक्षा, स्त्री शक्ति जागरण तथा युवा शक्ति का रचनात्मक उपयोग हमारे जनसंपर्क के प्रमुख विषय थे।” “उत्तराखंड के बारे में पहले तक हम युवकों के मन में दूसरा ही दृष्टिकोण था।

पहली अस्कोट-आराकोट यात्रा तत्कालीन पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, चमोली, टिहरी, देहरादून और उत्तरकाशी जिलों से गुजरते हएु करीब 350 गांवों को छूकर निकली।

किंतु इस यात्रा के बाद वह मिट गया। एक नये दृष्टिकोण ने जन्म लिया। खास कर हम इसी को ढूँढना चाहते थे। पैसा साथ में न रखने का निश्चय हुआ था, ताकि ग्रामीण जीवन और जन से अधिक जुड़ पायें। भोजन जिस गाँव में गये वहीं किया। हर ग्रामवासी से एक रोटी देने का निवेदन था। जब एक दम अकेले पथों में जाना पड़ा तो ग्रामवासियों ने हमारे लिये सत्तू बांध दिया। कुछ आवश्यकताएँ, जैसे रेडियो के सैल, कैमरे की रीलें, टॉर्च के सेल या अन्य छोटी-छोटी आवश्यकताएँ स्थानीय लोगों से ही पूरी करवाते थे।” पहली अस्कोट-आराकोट यात्रा तत्कालीन पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, चमोली, टिहरी, देहरादून और उत्तरकाशी जिलों से गुजरते हएु करीब 350 गांवों को छूकर निकली। यात्रा की शुरुआत 25 मई 1974 को हुई और 45 दिन बाद 8 जुलाई 1974 को आराकोट में इसका समापन हुआ। इस यात्रा ने न केवल गांवों के बारे में यात्री दल के सदस्यों का नजरिया बदला बल्कि उनके भावी जीवन की दिशा भी तय कर दी। कालांतर में इन सभी ने अपने सामाजिक योगदान के कारण देश-दुनिया अपनी खास पहचान बनाई। पहली यात्रा की प्रेरणा से ‘पहाड़’ जैसे हिमालयी सरोकारों वाली संस्था का जन्म हुआ, जिसने कालांतर में ‘अस्कोट-आराकोट अभियान’ को प्रत्येक दस वर्ष के अन्तराल में दोहराने का निर्णय लिया। इस तरह 1984, 1994, 2004, और 2014 में क्रमशः दूसरा, तीसरा, चौथा और पाँचवाँ ‘अस्कोट-आराकोट अभियान’ सम्पन्न हुआ। इन अभियानों का मकसद मूल यात्रा मार्ग पर पड़ने वाले गांवों को 10 वर्ष के अंतराल में देखना और इन दौरान हो रहे बदलावों को समझने का प्रयास करना था। हालांकि दूसरे ‘अस्कोट-आराकोट अभियान’ से यात्रा का शुरुआती बिन्दु अस्कोट के बजाय पांगू कर दिया गया, लेकिन नाम में कोई बदलाव नहीं हुआ। अलबत्ता यात्रामार्ग की लंबाई बढ़कर 1150 किमी हो गयी।हर बार ‘अस्कोट-आराकोट अभियान’ में कुछ नए युवा और उत्साही जुटते और बेहद विनम्रता से की जाने वाली 45 दिन की इस कठिन हिमालय यात्रा से अपने जीवन के लिए कुछ मूल्यवान सबक़ लेकर लौटते।

रोजगार, स्वास्थ और शिक्षा की बदहाली ने पलायन के रूप में उत्तराखण्ड को एक बड़ी बीमारी दी

सामाजिक बदलाव के लिहाज से एक दशक कम समय नहीं होता है। इतने वर्षों के बीच उत्तराखंड राज्य का निर्माण हुआ और नाजुक हिमालय के इस मध्य भाग ने इंसानी छेड़छाड़ के कारण आपदाओं सैकड़ों विभीषिकाओं का सामना किया। दूर-दराज गांवों तक पहुंची सड़कों ने पहुंचना थोड़ा आसान जरूर किया, मगर सड़कों के साथ पहुंचने वाली संस्कृति ग्रामीण जीवन की निश्छलता को लील गई। रोजगार, स्वास्थ और शिक्षा की बदहाली ने पलायन के रूप में उत्तराखण्ड को एक बड़ी बीमारी दी है। अभियान के मार्ग में पड़ने वाले गाँव भी इससे अछूते नहीं हैं। यह यात्रा बदलाव की इस आंधी के बरक्स विकास के जारी मॉडल को समझने का भी मौक़ा देती है।2014 की पांचवें ‘अस्कोट-आराकोट अभियान’ में नौ राज्यों और विदेशों के 260 से अधिक यात्रियों ने हिस्सेदारी की। इनमें 4 दर्जन से ज्यादा महिलाएं शामिल थीं। यात्रियों ने अपने-अपने ढंग से अपने अनुभवों को समेटा और प्रस्तुत किया।इस वर्ष 2024 में छठा ‘अस्कोट-आराकोट अभियान’ 25 मई 2024 से शुरू होगा। अभियान का यह पचासवां यानी स्वर्ण जयंती साल भी है। इस बार अभियान की प्रमुख थीम ‘स्रोत से संगम’ रखी गई है ताकि नदियों से समाज के रिश्ते को गहराई से समझा जा सके और उनकी सेहत पर पड़ रहे दबावों को सामने लाया जा सके।अभियान में उत्तराखण्ड की अनेक सामाजिक संस्थाओं के कार्यकर्ता; विभिन्न विश्वविद्यालयों के शोधार्थी और प्राध्यापक, उत्तराखंड-हिमाचल के इंटर कालेजों, हाईस्कूलों के विद्यार्थी और शिक्षक, पत्रकार, लेखक, रंगकर्मी, सामाजिक कार्यकर्ताओं के अलावा देश-विदेश के हिमालय प्रेमी भी शिरकत करेंगे

उम्मीद है वास्तविक समस्याओं पर चिंतन करने की शुरुआत करेंगे।

मुख्य यात्रा के अलावा इस बार अनेक टोलियाँ दूसरे मार्गों से अपनी नदी अध्ययन यात्राएं आयोजित करेंगी। स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थी अपने-अपने इलाके की नदियों की सेहत का जायजा लेने के लिए छोटी अध्ययन यात्राएं निकालेंगे और अपने परिवेश की वास्तविक समस्याओं पर चिंतन करने की शुरुआत करेंगे। उम्मीद है इस बार की यात्रा पहाड़ में कुछ परिवर्तन लाएगी ।।

नोट -इस लेख में सोशल मीडिया और गूगल की मदद भी ली गई है तथा लेख में अधिकांश लेखनी हिंदुस्तान के स्थानीय संपादक राजीव पांडे जी का है। आभार

@deepakjoshi

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