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क्या है फुलदेई का धार्मिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण ?

उत्तराखण्ड

क्या है फुलदेई का धार्मिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण ?

उत्तराखंड का लोकपर्व फुलदेई जो याद दिलाता है कि प्रकृति के बिना इंसान का अस्तित्व नहीं है. प्रकृति को संजो के रखना हर व्यक्ति का कर्तव्य है. यह चैत महीने की संक्रांति को उत्तराखंड में मनाया जाता है .सर्दी और गर्मी के बीच का खूबसूरत मौसम, फ्यूंली, बुरांश और बासिंग के पीले, लाल, सफेद फूल और बच्चों के खिले हुए चेहरे… वाह क्या ही कहना । नए साल का, नई ऋतुओं का, नए फूलों के आने का संदेश लाने वाला ये त्योहार आज उत्तराखंड के गांवों और कस्बों में मनाया जाता है। प्रकृति को आभार प्रकट करने वाला लोकपर्व है ‘फूलदेई’जब ऊंची पहाड़ियों से बर्फ पिघल जाती है, सर्दियों के कठिन दिन बीत जाते हैं, उत्तराखंड के पहाड़ बुरांश के लाल फूलों की चादर ओढ़ने लगते हैं, तब पूरे इलाके की खुशहाली के लिए फूलदेई का त्योहार मनाया जाता है। ये त्योहार आमतौर पर किशोरी लड़कियों और छोटे बच्चों का पर्व है। फूल और चावलों को गांव के घर की मुख्यद्वार पर डालकर लड़कियां उस घर की खुशहाली की दुआ मांगती हैं।

इस दौरान एक गाना भी गाया जाता है- फूलदेई, छम्मा देई…जतुकै देला, उतुकै सही…दैणी द्वार, भर भकारफूलदेई के दिन लड़कियां और बच्चे सुबह-सुबह उठकर फ्यूंली, बुरांश, बासिंग और कचनार जैसे जंगली फूल इकट्ठा करते हैं। इन फूलों को रिंगाल (बांस जैसी दिखने वाली लकड़ी) की टोकरी में सजाया जाता है। टोकरी में फूलों-पत्तों के साथ गुड़, चावल और नारियल रखकर बच्चे अपने गांव और मुहल्ले की ओर निकल जाते हैं। द्वारपूजा के लिए एक जंगली फूल का इस्तेमाल होता है, जिसे फ्यूली कहते हैं। इस फूल के खिलते ही पहाड़ फिर हरे होने लगे, नदियों में पानी फिर लबालब भर गया, पहाड़ की खुशहाली फ्यूंली के फूल के रूप में लौट आई … इसके पीछे वैज्ञानिक दृष्टिकोण है, क्योंकि सूर्य निकलने पर भंवरे फूलों पर मंडराने लगते हैं, जिसके बाद परागण एक फूल से दूसरे फूल में पहुंच जाते हैं और बीज बनने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। वसंत के इस मौसम में हर तरफ फूल खिले होते हैं, फूलों से ही नए जीवन का सृजन होता है। चारों तरफ फैली इस वासंती बयार को उत्सव के रूप में मनाया जाता है।

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